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Explainer: चीन खेल में कैसे बना सुपरपॉवर, 70 के दशक तक था भारत से भी फिसड्डी

China Superpower in Sports: भारत ने साल 1951 में पहले एशियाई खेलों का आयोजन किया तो उसने जापान के बाद सबसे ज्यादा पदक जीते थे. नई दिल्ली से लेकर 1970 बैंकाक तक छह एशियाई खेल ऐसे रहे जब भारत को अपने महाद्वीप में खेलों की एक बड़ी ताकत माना जाता था. उस समय तक चीन खेलों की दुनिया से नदारद था. उसने पहली बार 1974 तेहरान एशियाई खेलों में भाग लिया और 33 गोल्ड मेडल सहित 106 पदक जीतकर सबको चौंका दिया. ऐसा ही कुछ ओलंपिक खेलों में रहा. भारत ने 1928 एम्सटर्डम खेलों में पहली बार हॉकी का गोल्ड मेडल अपने नाम किया तो लगातार छह ओलंपिक में अपना डंका बजाया. जब 1984 लॉस एंजिल्स खेलों में चीन ने अपना ओलंपिक डेब्यू किया तब तक भारत आठ गोल्ड, एक सिल्वर और तीन ब्रॉन्ज मेडल जीत चुका था. लेकिन चीन ने लॉस एंजिल्स में 15 गोल्ड मेडल सहित 32 पदक जीतकर धमाकेदार प्रदर्शन किया और चौथे नंबर पर रहा. 

वो देश जो लंबे समय तक खेलों की दुनिया से दूर रहा, लेकिन जब मैदान में उतरा तो पदकों का अंबार लगा दिया. हाल ही में जब 2024 पेरिस ओलंपिक सम्पन्न हुए तो संयुक्त राज्य अमेरिका 125 पदकों के साथ शीर्ष पर रहा. चीन ने गोल्ड मेडल जीतने के मामले में अमेरिका की बराबरी की. दोनों देशों ने 40-40 गोल्ड मेडल जीते. आखिर चीन ने ऐसा क्या किया जो वो आते ही छा गया और जल्द ही उसका शुमार खेलों में सुपरपॉवर के तौर पर होने लगा. 

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119 प्रोजेक्ट ने तैयार किए खिलाड़ी
चीन की हैरान करने वाली सफलता की कहानी के पीछे छिपी है एक खेल परियोजना. लगभग तीन दशक पहले चीन की ओलंपिक समिति ने 119 प्रोजेक्ट नाम की एक परियोजना तैयार की थी. जिसके तहत एक्वेटिक्स (तैराकी, डाइविंग सहित पानी में खेले जाने वाले सभी खेल) और एथलेटिक्स में पदक जीतने वाले खिलाड़ी तैयार करने थे. मालूम हो कि ओलंपिक में इन दोनों कैटेगरी में कुल 119 पदक दिए जाते हैं. इसके तहत दिग्गज खिलाड़ियों को चीनी खिलाड़ियों के साथ प्रैक्टिस करने बुलाया गया. साथ ही दुनिया के मशहूर कोच नियमित तौर पर चीनी खिलाड़ियों को सिखाने के लिए बुलाए गए. चीनी खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर जल्द ही इसका असर असर देखने को मिला.

 

खेल स्कूलों का भी महत्वपूर्ण रोल
चीन के सिस्टम की भले ही कितनी आलोचना की जाती है, मगर उसके प्रभावी होने में किसी को कोई संदेह नहीं है. साफ है कि चीन में हर चीज की शुरुआत और अंत अच्छे प्रशासन से होती है. खेल के मामले में भी प्रतिभाशाली बच्चों को छह साल की उम्र में ही 5000 खेल स्कूलों में से किसी में भेज दिया जाता है. वहां पर उन्हें ओलंपिक पदक जीतने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. यदि उनका प्रदर्शन पैमाने पर खरा नहीं उतरा तो उन्हें वापस भेज दिया जाता है. अकेले बीजिंग स्थित शिचाचाई स्पोट्र्स स्कूल ने 30 से ज्यादा विश्व चैंपियन और सैकड़ों नेशनल चैंपियन तैयार किए हैं. 1958 में स्थापित इस स्कूल को चैंपियनों की नर्सरी कहा जाता है.   

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हजारों में हैं प्रोफेशनल एथलीट
चीन में रजिस्टर्ड प्रोफेशनल एथलीटों की संख्या 20 हजार के करीब है. जिनमें से करीब 1200, 1300 को देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना जाता है. चीन की शक्ति इन्हीं आंकड़ों में छिपी है. खेलकूद चीन में राष्ट्रीय परियोजना है. एक खेल इतिहासकार कहते हैं कि चीन को मालूम है कि उसे आधुनिक इतिहास में राजनीतिक तौर पर अपमानित किया गया था. जब हमने दुनिया से मुकाबला किया तब पाया कि हम काफी पिछड़ चुके हैं. चीन ने 1952 हेलसिंकी से 1980 मास्को तक ओलंपिक में हिस्सा नहीं लिया था. 1984 लॉस एंजिल्स से अपनी वापसी करने वाले चीन ने टेबल टेनिस, डाइविंग, शूटिंग और जिमनास्टिक जैसे परपंरागत खेलों में भाग लिया और पदक जीतकर फायदा उठाया.

ऊंचे इरादे- आला प्रशिक्षण
मगर जाहिर है, यह दृश्य बदल रहा है. हिचकिचाहट भरी शुरुआत के बाद अब उसके खिलाड़ी ताल ठोककर मुकाबला कर रहे हैं और देश के लिए गोल्ड मेडल का अंबार लगा रहे हैं. पेरिस ओलंपिक में चीनी टेबल टेनिस टीम ने 2020 में मिक्स्ड इवेंट शामिल होने के बाद पहली बार सभी पांच स्वर्ण जीते. मा लोंग ने अपना छठा गोल्ड मेडल भी जीता. जिससे वह सबसे अधिक गोल्ड मेडल जीतने वाले चीनी ओलंपियन बन गए. उन्हें किसी चमत्कार या मन्नत मांगने से गोल्ड मेडल नहीं मिला बल्कि यह ऊंचे इरादों और लगातार आला किस्म के प्रशिक्षण का नतीजा है. जाहिर है, चीनियों ने दौड़ना सीखने से पहले चलना सीखा; और जब वे दौड़ने लगे तो कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता.

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