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इंदौर के शंकराचार्य मठ में प्रवचन: मात्र कपड़े रंगने या बाल बढ़ाने से कोई साधु नहीं बनता, मन को रंगना जरूरी- ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज – Indore News

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भगवान प्रत्येक व्यक्ति को संदेश देते हैं कि आत्मनिर्भर बनो। भगवान कहते हैं कि कामनाओं का त्याग करने वाला ही सच्चा साधु होता है। मात्र कपड़े रंगने से या बाल बढ़ाने से कोई साधु नहीं बनता, मन को रंगने से ही व्यक्ति साधु बनता है।

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एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में सोमवार को यह बात कही।

मृत्युलोक में सबके अपने-अपने दु:ख

महाराजश्री ने बताया एक बार देवर्षि नारद से भगवान विष्णु ने कहा जाओ मृत्युलोक के मानवों का कुशलक्षेम देखकर आओ। नारदजी आए सबसे पहले उन्हें एक दरिद्र दु:खी व्यक्ति मिला, न जिसके तन पर कपड़ा था, न खाने के लिए रोटी, वह नारदजी को पहचान गया। बोला- जाओ भगवान से कहना कि मेरी दीन हीन दशा सुधारने के लिए व्यवस्था करें। नारदजी आगे पहुंचे तो उन्हें एक धनी व्यक्ति मिला। वह कहने लगा कि नारद जी, मैं बेहद परेशान हूं, घर संसार में उलझा रहता हूं, मेरे पास इतनी संपत्ति है, कि मैं उसी की देखभाल में लगा रहता हूं। भगवान का नाम तक लेने का समय नहीं मिलता। भगवान से जाकर कहना कि कुछ करें। नारदजी ने कहा ठीक है। अब नारदजी आगे बढ़े ही थे कि चार-पांच साधु आ गए। बोले नारदजी तुम तो स्वर्ग में बहुत मजे ले रहे हो, अपने जैसी हमारी भी व्यवस्था भगवान से करवाओ। नहीं तो चिमटा मार-मार कर तुम्हारा भूसा बना देंगे। नारदजी ने साधुओं की व्यवस्था की और पीछा छुड़ाया। वे भगवान के पास पहुंचे, नारदजी को देख भगवान हंसने लगे। बोले सुनाइए नारदजी, क्या देखा? नारदजी ने बताया- प्रभु एक दरिद्र मिला, जिसके तन पर कपड़ा था न खाने को रोटी, एक धनी मिला वह धन संभालने में ही इतना परेशान है कि उसे आपका नाम लेने का भी समय नहीं है। चार साधु मिले वे स्वर्ग सा ऐश्वर्य चाहते हैं। भगवान ने कहा- जाओ उस दरिद्र से कहना आलस्य छोड़ो कर्म करो दरिद्रता दूर करने का यत्न करो, सब ठीक हो जाएगा, बैठे-बैठे कुछ नहीं होगा। धनी से जाकर कहना परोपकार में अपना धन लगाओ, दीन-दु:खियों की सेवा करो, नहीं तो आगे जाकर और मुसीबत आ जाएगी। धन के चक्कर में जान से हाथ धोना पड़ेगा। साधुओं से जाकर कहना कि सब त्यागने के बाद भी तुम्हारे मन में ऐश्वर्य की कामना है तो फिर काहे के साधु? कामनाओं का मन से त्याग करो, नहीं तो नरक की कठोर यातनाएं भोगना पड़ेंगी।

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