इंदौर से 30 किमी दूर जंगल में स्थित प्राचीन कजलीगढ़ किले और उसके आसपास बंदरों ने अपना ठिकाना बना लिया है। बीते वर्षों में इनकी संख्या बढ़कर एक हजार से ज्यादा हो गई है। आपसी खींचतान के चलते ये दो गुटों में बंट गए हैं। भले ही उनके झुंड का रंग अलग हो, ल
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समाजसेवियों ने धीरे-धीरे जंगल में जाकर इनकी नब्ज टटोली और सेवा कार्य शुरू किया। अब हफ्ते में तीन दिन वे वहां जाकर बंदरों के लिए भोजन और पानी की व्यवस्था करते हैं। साथ ही, दोनों गुटों के बीच सुलह कराने की भी कोशिश कर रहे हैं। जंगल में यह दृश्य अब रोमांचक होने के साथ-साथ सुकून देने वाला भी बन गया है, और सेवा कार्यों से जुड़े लोग खुद को भाग्यशाली मानते हैं कि उन्हें यह अवसर मिला।
कजलीगढ़ किला इंदौर-खंडवा रोड से करीब 8 किमी अंदर स्थित है और 200 साल से अधिक पुराना है। यह किला कभी महाराजा शिवाजी का शिकारगाह हुआ करता था, लेकिन समय के साथ यह खंडहर में बदल गया। करीब एक दशक पहले यहां लूटपाट और अपराध की घटनाएं बढ़ गई थीं, जिससे लोग यहां आने से कतराने लगे। यह किला फिलहाल वन विभाग के अधीन है।
पहले यहां बंदरों की संख्या बहुत कम थी, क्योंकि इस सुनसान क्षेत्र में उन्हें भोजन नहीं मिल पाता था। लेकिन अब समाजसेवियों के प्रयासों से यहां भोजन और सुरक्षा मिलने लगी है, जिससे उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है।
ऐसे शुरू हुई एक अच्छी पहल कुछ साल पहले इंदौर के लोग यहां घूमने के लिहाज से आए तो उन्होंने बंदरों को देखा। दरअसल ये बंदर उनके पास रखी खाद्य सामग्री छीनकर ले जाते थे। बंदरों की इस तरह की शरारतों से वे डरे लेकिन साथ ही महसूस किया कि वे काफी भूखे हैं। इस पर उन्होंने धीरे-धीरे इन बंदरों को केले, सेवफल, संतरा, अंगूर, गाजर, टमाटर, चने आदि देना शुरू किया तो धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई।
वानर सेनाओं का ऐसा जमावड़ा।
फिर पता चला दो वानर सेनाएं
फिर पता चला कि बंदरों के दो समूह हैं। एक लाल मुंह वाले और दूसरे काले मुंह वाले। पशु-पक्षी प्रेमी, दानदाता इन्हें कुछ खाने को देते तो एक समूह टूट पड़ता जबकि दूसरा समूह भूखा रह जाता। ऐसा कई बार होने लगा। कुछ समय बाद लाल मुंह वाले बंदरों का समूह काफी बड़ा हो गया और उनका खाद्य सामग्री पर कब्जा हो गया। ऐसे 2 किमी दूर जाकर निकाला हल, …और बंट गई सेनाएं इस बीच शहर के अनाज, सब्जी कारोबारी, पशु-पक्षी प्रेमियों का रुख भी जंगल की ओर हुआ। वे भी हर 10-15 दिनों में मेटाडोर में फल भरकर वहां ले जाने लगे। इन लोगों ने दोनों समूहों को संतुष्ट करने का एक हल निकाला। समाजसेवियों की एक टीम ने लाल मुंह वाले बंदरों की सेना को वहीं किले और उसके आसपास सीमित कर दिया।
उन्होंने बंदरों को भरपेट फल, चने देना शुरू किए। दूसरी टीम काले बंदरों को करीब 2 किमी दूर ले गई। इसके लिए दूसरी मेटाडोर में फल भरकर वहां ले गए तो काले बंदर उनके पीछे चले गए। लोगों ने उन्हें वहां भोजन देना शुरू किया। कुछ ही दिनों में दोनों वानर सेनाएं इसकी आदी हो गई। अब दोनों वानर सेनाओं के गुट दूर-दूर हैं।
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काले बंदरों की सेना के लिए 2 किमी दूर ठिकाना।
अब दोनों सेनाओं के लिए ऐसा है सिस्टम
अब हफ्ते में जब भी पहली फलों की मेटाडोर आती है तो वह लाल मुंह के बंदरों के लिए किले की ओर रुख करती है। दूसरी ओर काले मुंह वाली वानर सेना का समय भी तय है कि अब 10 मिनट बाद उन्हें भोजन मिलेगा तो वे 2 किमी दूर से ही इंतजार करते हैं।
उन्होंने भी यही अपना ठिकाना बना लिया। इस तरह दोनों सेनाओं की किलाबंदी हो गई और दोनों सेनाओं को भरपेट भोजन मिलता है। ‘चंगु मंदू आओ… आओ…’ से एक मिनट में सैकड़ों बंदर खास बात यह कि बंदरों को कोई और बुलाता है तो वे नहीं आते हैं। जैसे ही समाजसेवी जंगल में जाकर अपनी बोली में उन्हें ‘चंगु मंगू आओ… आओ…’ कहकर बुलाते हैं तो यह सुनकर जंगल, खाई में से एक मिनट में सैकड़ों की संख्या में बंदर वहां एक साथ इकट्ठा हो जाते हैं। उनकी यह बोली बंदरों के प्रति प्रेम भाव है जिसके चलते अब उनकी दोस्ती उनसे हो गई है। रोमांचक और मन को सुकून देने वाला नजारा यह नजारा वाकई काफी रोमांचक और मन को सुकून देने वाला है। कभी कभार एक सेना के सदस्य दूसरी ओर का रुख करते हैं तो वहां की सेना उन्हें भगा देती है, यह दृश्य भी काफी रोचक होता है। इस घने और सुनसान क्षेत्र में बुजुर्ग गणेश पाटीदार (67) वे शख्स हैं जो यहां रात को भी अकेले रहते हैं।
दरअसल 10-12 साल पहले यहां आसपास के गांवों ने हनुमानजी का मंदिर बनवाया तो वे वहीं सेवा देते हैं। साथ ही खण्डर में गुफानुमा कमरे में अकेले रहते हैं। वे खुद भी यहां वानर सेना की सेवा करते हैं। बंदरों के लिए बनवा दिया स्विमिंग पूल, टैंकरों से आता है पानी
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बंदरों के लिए एक छोटा सा स्विमिंग बूल बनवाया है।
गांव के पूनमचंद गौर (पहलवान) ने बताया कि बीते सालों में यहां वानरों की संख्या 1 हजार से ज्यादा हो गई है। यह सब सेवाभावी लोगों की पहल से हुआ है। हफ्ते में तीन दिन अलग-अलग समाजसेवियों का समूह यहां गाडियों में वानरों के लिए भोजन लेकर आता है। इससे वानरों की सक्रियता काफ बढ़ गई और दोनों प्रजाति के कुनबे अब काफी बड़े हो गए हैं।
जंगल में मनुष्य के साथ इनकी दोस्ती और तालमेल काफी रोमांचित करता है। गांव के पंकज सेजा ने बताया कि यहां बंदरों को भोजन तो भरपेट मिलने लगा लेकिन पानी की समस्या थी खासकर गर्मी में बहुत ज्यादा है। इसके चलते लोगों की मदद से यहां बंदरों के लिए एक छोटा सा स्विमिंग बूल बनवाया है। बंदर इसमें पानी पीते हैं और भीषण गर्मी में पानी के साथ अठखेलियां खेलते और डुबकियां भी लगाते हैं। इनके लिए सेवाभावी लोग टैंकर से पानी भी सप्लाय करते हैं। मोर, कौए, चिड़ियों, गिलहरियों का भी ऐसा ही नजारा
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समाजसेवी समूह द्वारा वानरों के बाद पक्षियों के लिए भी ऐसी सेवा की जाती है।
यहां फल, सब्जी कारोबारी जितेंद्र सोनवणे, संजय कुशवाह, वैभव घाडगे आदि समाजसेवियों की टीम हर गुरुवार को बंदरों के लिए मेटाडोर भरकर फल लाती है और उन्हें भोजन कराती है। हर गुरुवार को दोनों वानर सेनाएं दोपहर 3 बजे इनके इंतजार में अपने-अपने ठिकानों पर पहुंच जाती है।
इस समाजसेवी समूह द्वारा वानरों के बाद पक्षियों के लिए भी ऐसी सेवा की जाती है। वे किले के पास इनके लिए भोजन में दाने की थैलियां लेकर आते हैं। कुछ ही देर में मोर, कौए, चिड़ियों, गिलहरियां काफी संख्या में एकत्रित हो जाते हैं। जंगलों में पशु-पक्षियों और इंसानों के बीच प्रेम का यह अद्भुत नजारा एक संदेश देता है।
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