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एमपी उपचुनाव रिजल्ट का एनालिसिस: मोहन कैबिनेट की खाली होने वाली सीट के लिए 3 ऑप्शन, जीत से पटवारी की जमीन मजबूत – Bhopal News

तारीख- 8 जुलाई 2024। स्थान- राजभवन का सांदीपनि हॉल। आवाज गूंजती है- ‘मैं राम निवास रावत.. राज्य मंत्री पद की शपथ लेता हूं..।’

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गलती का अहसास होता है, भूल सुधार करते हैं, दोबारा शपथ लेते हैं। दरअसल, राज्य के मंत्री की जगह राज्य मंत्री बोल गए थे। चार महीने बाद विजयपुर के मतदाताओं ने भी भूल सुधार कर अपना मत जाहिर कर दिया है। रावत के लिए उनका सीधा मैसेज – दल आपने बदला है, हमने नहीं।

श्योपुर जिले को भाजपा राजनीतिक तौर पर क्रिटिकल मानती है। 2023 के विधानसभा चुनाव में एकतरफा जीत के बावजूद छिंदवाड़ा, हरदा के अलावा श्योपुर ऐसा जिला था, जहां भाजपा का खाता नहीं खुला।

लोकसभा चुनाव में पार्टी ने किसी तरह की रिस्क नहीं ली और एहतियात बरतते हुए कांग्रेस के छह बार के विधायक और मंत्री रहे रामनिवास रावत को अपने यहां आने का ऑफर दिया। सशर्त आए रावत को मंत्री भी बनाया। लोकसभा चुनाव में रावत की वजह से पार्टी को फायदा हुआ भी, लेकिन अब उनका खुद का नुकसान हो गया।

इधर, शिवराज सिंह चौहान की सीट बुधनी से उनके समर्थक रमाकांत भार्गव जीत तो गए लेकिन अंतर इतना कम रहा कि पार्टी खुलकर जश्न भी नहीं मना पा रही है।

उपचुनाव के रिजल्ट के बाद अब रावत का क्या होगा और मध्यप्रदेश की सियासत में क्या समीकरण बदलेंगे, जानेंगे 4 सवालों के जवाब में।

अब 3 पॉइंट में समझते हैं विजयपुर में भाजपा की हार की वजह…

1. बसपा की चुनाव से दूरी : इस बार मायावती ने अपनी पार्टी का उम्मीदवार नहीं उतारा। इसका सीधा फायदा कांग्रेस को मिला। रावत के साथ गए कांग्रेस वोटर्स की क्षतिपूर्ति बसपा की गैरहाजिरी ने कर दी। 2018 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने यहां 35628 वोट हासिल किए थे। 2023 में बसपा को 34346 वोट मिले।

2. आदिवासियों की नाराजगी : वोटिंग के दो दिन पहले चार गांवों में हुए हमले ने आदिवासियों को एकजुट कर दिया। आरोप लगे कि बाहरी लोगों ने फायरिंग कर आदिवासियों को वोट नहीं डालने की धमकी दी। भाजपा इसका खंडन करती रही, लेकिन हमले ने मुकाबले को आदिवासी V/s रावत बना दिया।

3. सिंधिया की गैरहाजिरी : चंबल का यह क्षेत्र भी सिंधिया के प्रभाव वाला माना जाता है। सिंधिया किन्हीं कारणों से पूरे चुनाव प्रचार के दौरान इस क्षेत्र में नहीं दिखे। इसकी वजह इस तथ्य से समझ सकते हैं- सिंधिया समर्थक रहे रावत 2020 में कांग्रेस के मंत्री-विधायकों की उस खेप में शामिल नहीं थे, जो सिंधिया के साथ भाजपा में आई थी। बाद में नरेंद्र सिंह तोमर के मार्फत रावत की एंट्री हुई।

अब बात बुधनी की… जीत के कम अंतर की 4 वजह

1. शिवराज का अपना प्रभाव : शिवराज सिंह चौहान बुधनी से छह मर्तबा विधायक चुने गए। उनकी सबसे बड़ी जीत 1,04,974 वोटों की साल 2023 में रही और सबसे कम वोट 36525 से 2006 के चुनाव में जीते थे। शिवराज ने पांच चुनाव तो मुख्यमंत्री रहते लड़े थे। वहां के वोटर एक तरह से अपने वोट से सीधे मुख्यमंत्री चुनते थे। उनकी मामा की छवि बुधनी में ही गढ़ी गई।

2. किरार वोटर भी दूर रहा : इनका क्षेत्र में प्रभाव माना जाता है। शिवराज इसी समाज से आते हैं। एकतरफा समर्थन मिलता रहा है। समाज उनके चुनावी अभियान में बढ़कर हिस्सा लेता रहा। इस बार चुनावी परिस्थितियां अलग थीं। कांग्रेस उम्मीदवार राजकुमार पटेल भी इसी समाज से आते है।

3. राजपूत की नाराजगी : रमाकांत भार्गव की उम्मीदवारी के बाद दावेदार राजेंद्र सिंह राजपूत ने खुलकर नाराजगी जाहिर की थी। उन्हें मनाने के लिए पार्टी को मशक्कत करना पड़ी। हालांकि वे वरिष्ठों का मान रखने के लिए मान तो गए, पर खुश नहीं थे। राजेंद्र सिंह 2003 में पहली और आखिरी बार विधायक चुने गए थे। 2006 में उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए सीट छोड़ी थी।

4. भार्गव नहीं थे सबकी पसंद : रमाकांत भार्गव की उम्मीदवारी को लेकर पार्टी का जमीनी कार्यकर्ता खुश नहीं था। कार्यकर्ताओं की पसंद शिवराज के बेटे कार्तिकेय थे। मंडल अध्यक्षों ने लिखकर दिया था कि कार्तिकेय को उम्मीदवार बनाया जाए।

इन 4 सवालों में सियासी समीकरणों का जवाब…

राजनीतिक रूप से सबसे बड़ा फायदा किसे? प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी को। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद जब उन्होंने कमान संभाली तो लोकसभा चुनाव की चुनौती सामने थी। वे कुछ समझ पाते इससे पहले ही पार्टी में भगदड़ जैसे हालात बन गए। उम्मीदवार भी मैदान छोड़कर भाग रह थे।

लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में कांगेस की ऐतिहासिक हार (0/29) के बाद तो उनकी राजनीतिक काबिलियत पर सवाल उठने लगे। फिर छिंदवाड़ा के अमरवाड़ा उपचुनाव की हार ने इन सवालों को और बल दे दिया।

पटवारी अकेले पार्टी की जमीन संभालने में लगे रहे। विजयपुर में उन्होंने पूरी ताकत लगाई। यहां के नतीजे ने उन्हें ताकत भी दी है। अब वे और मजबूत बनकर सामने आएंगे और ज्यादा हमलावर होंगे।

भाजपा में किस पर और क्या असर पड़ेगा? ‘हमें नुकसान कहां हुआ है? यह सीट तो पहले भी कांग्रेस के पास थी। हमारा वोट प्रतिशत बढ़ा है।’ भाजपा के प्रवक्ताओं से ऐसी ही प्रतिक्रिया की उम्मीद है लेकिन पार्टी इस हार को इतने सहज रूप से नहीं लेगी। अपनी सरकार रहते उपचुनाव हारना पार्टी की अगली बैठक में मंथन का मुख्य एजेंडा रहेगा।

चूंकि पार्टी में संगठनात्मक चुनाव का दौर चल रहा है, इसलिए व्यक्तिगत तौर पर किसी की राजनीतिक सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा। हां, हाईकमान जिम्मेदारों से जवाब-तलब जरूर करेगा। इधर असंतुष्ट नेताओं की बात पर पार्टी गौर करेगी।

हार के बाद रामनिवास रावत का क्या होगा? विजयपुर में हार के बाद मंत्री रावत ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। संवैधानिक रूप से वे बिना विधायक रहे 6 महीने मंत्री रह सकते थे। 8 जुलाई को वे मंत्री बने थे। इस दृष्टि से वे 7 जनवरी तक मंत्री पद पर रह सकते थे, लेकिन नैतिक रूप से उन्होंने ऐसा नहीं किया और मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

इस्तीफे के बाद रावत भाजपा में ही रहेंगे। उनके कद और श्योपुर के चुनावी जीत के सूखे को दूर करने के लिए पार्टी दूरदृष्टि रखेगी तो उन्हें आने वाले समय में किसी निगम-मंडल में एडजस्ट किया जा सकता है।

सरकार पर इसका कोई फर्क पड़ेगा? राज्य मंत्रिमंडल के जल्द ही विस्तार की संभावना अब बढ़ जाएगी। रावत के आद अगला वन मंत्री कौन होगा? इस सवाल के जवाब पर अब सबकी नजरें हैं।

पहले इस महत्वपूर्ण महकमे का जिम्मा आलीराजपुर के विधायक और आदिम जाति कल्याण मंत्री नागर सिंह चौहान के पास था। उनसे छीनकर ही रावत को वन एवं पर्यावरण दिया गया था। तब नागर सिंह ने अपनी नाराजगी खुले तौर पर जाहिर की थी।

पहला विकल्प – नागर को फिर वन एवं पर्यावरण की जिम्मेदारी देकर उनकी नाराजगी को दूर कर आदिवासियों में संदेश दिया जाए।

दूसरा विकल्प- मंत्रिमंडल के ही किसी वरिष्ठ मंत्री को जिम्मेदारी सौंप दे।

तीसरा विकल्प- मंत्रिमंडल का विस्तार कर नए मंत्री को जिम्मेदारी दी जाए।

संभावना यह है कि मौजूदा मंत्रियों में से ही किसी को इसका जिम्मा दिया जाएगा। मंत्रिमंडल के विस्तार की अभी कोई राजनीतिक मजबूरी सरकार या संगठन के सामने नहीं है।

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