न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की पीठ ने यह फैसला एक स्वत: संज्ञान मामले में दिया है।
मध्यप्रदेश में अब दृष्टिबाधित दिव्यांग भी अदालतों में जज बन सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने दृष्टिबाधित दिव्यांगों को न्यायिक सेवा में शामिल होने की अनुमति दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को दिए एक फैसले में कहा है कि किसी भी व्यक्ति को केवल उसकी शारीरिक
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इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश न्यायिक सेवा नियमों के उस प्रावधान को निरस्त कर दिया, जिसमें नेत्रहीन और कमजोर दृष्टि वाले उम्मीदवारों को न्यायिक सेवा से बाहर रखा गया था।
अदालत ने कहा कि, नेत्रहीन और कमजोर दृष्टि वाले उम्मीदवार न्यायिक सेवा की भर्ती प्रक्रिया में भाग लेने के योग्य हैं। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि आरक्षण और सहायक सुविधाएं देकर दिव्यांग उम्मीदवारों को न्यायिक सेवा में समान अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।
3 वर्ष की प्रैक्टिस या 70%अंकों की अनिवार्यता भी खारिज जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की पीठ ने यह फैसला एक स्वत: संज्ञान मामले में दिया है। जिसमें मध्यप्रदेश सेवा परीक्षा (भर्ती एवं सेवा शर्तें) नियम 1994 के नियम 6 ए को चुनौती दी गई थी। अदालत ने नियम 7 के उस प्रावधान को भी खारिज कर दिया, जो दिव्यांग उम्मीदवारों के लिए 3 वर्ष की प्रैक्टिस या 70% अंकों की अनिवार्यता को निर्धारित करता था।
अदालत ने यह स्पष्ट किया कि, यह नियम शैक्षिक योग्यता और न्यूनतम 70% अंक की अनिवार्यता के लिए लागू रहेगा, लेकिन यह आवश्यक नहीं होगा कि ये अंक पहले प्रयास में ही प्राप्त किए गए हों या उम्मीदवार के पास तीन वर्षों का अनुभव हो।
अदालत ने कहा- भर्ती प्रक्रिया में भेदभाव नहीं होना चाहिए अदालत ने कहा कि दिव्यांग व्यक्तियों से न्यायिक सेवा में भर्ती की प्रक्रिया में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। राज्य को उनके लिए एक समावेशी ढांचा बनाने के लिए सकारात्मक कदम उठाने चाहिए।
न्यायालय ने कहा कि, ऐसा कोई भी परोक्ष भेदभाव जो दिव्यांग व्यक्तियों को बाहर करने का कारण बने, चाहे वह कट-ऑफ अंक के माध्यम से हो या प्रक्रियागत बाधाओं के रूप में हो उसे रोका जाना चाहिए ताकि वास्तविक समानता को बनाए रखा जा सके।
न्यायिक सेवा भर्ती में दिव्यांग उम्मीदवारों का हक कोर्ट ने कहा है कि, जो दिव्यांग उम्मीदवार पहले से चयन प्रक्रिया में भाग ले चुके हैं। वे अब इस फैसले के आधार पर न्यायिक सेवा के लिए योग्य माने जाएंगे और यदि वे अन्य आवश्यकताओं को पूरा करते हैं तो उन्हें रिक्त पदों पर नियुक्ति मिल सकती है।
यह मामला 3 दिसंबर 2024 को विचाराधीन रखा गया था, उस दिन अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांगता दिवस भी होता है। अदालत ने राजस्थान न्यायिक सेवा में आवेदन करने वाले दिव्यांग उम्मीदवारों की याचिकाओं पर भी विचार किया और कहा कि, वे अगले भर्ती चक्र में भाग लेने के लिए पात्र होंगे यदि वे आवेदन करते हैं।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश को भेजे पत्र से शुरू हुआ मामला इस मामले की सुनवाई का आधार तब बना, जब एक नेत्रहीन उम्मीदवार की मां ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को एक पत्र भेजा। इसमें उनके बेटे को भर्ती प्रक्रिया से बाहर किए जाने की शिकायत थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस पत्र को संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका में परिवर्तित किया और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के सचिव, मध्यप्रदेश सरकार और भारत सरकार को नोटिस जारी किया।
कोर्ट ने कहा-

न्यायिक सेवा में दिव्यांग उम्मीदवारों के लिए 2022 में आयोजित सिविल जज वर्ग-II परीक्षा में नेत्रहीन प्रतिभागियों के लिए आरक्षण नहीं था, जो कि विकलांगता अधिकार अधिनियम 2016 के सिद्धांतों के विरुद्ध था। मई 2024 में अदालत ने अंतरिम आदेश पारित कर यह निर्देश दिया कि जो दिव्यांग उम्मीदवार अंतिम परीक्षा में उपस्थित हुए थे, वे एससी, एसटी उम्मीदवारों के लिए निर्धारित न्यूनतम अंक प्राप्त करने पर साक्षात्कार के लिए पात्र होंगे।
विकलांगता समाज की बाधा है, व्यक्ति की नहीं इस मामले की सुनवाई के दौरान, डॉ. संजय जैन (राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, बेंगलुरु के प्रोफेसर) ने अदालत में यह तर्क दिया कि विकलांगता मेरी शारीरिक कमजोरी में नहीं, बल्कि सामाजिक बाधाओं में है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव अग्रवाल (न्याय मित्र) ने अदालत के समक्ष विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा 34 का उल्लेख किया जो न्यायिक अधिकारियों, उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के अधिकारियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करता है। उन्होंने यह भी बताया कि मध्यप्रदेश ने मध्यप्रदेश विकलांगता अधिकार नियम, 2017 को अपनाया है, जिसमें 6% आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
जब न्यायमूर्ति पारदीवाला ने पूछा कि क्या नेत्रहीन या कमजोर दृष्टि वाले उम्मीदवारों को न्यायिक सेवा में कार्य करने के लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी? तो न्याय मित्र ने जवाब दिया कि न केवल न्यायिक अधिकारियों, बल्कि उनके सहयोगियों और स्टाफ को भी प्रशिक्षण और संवेदनशीलता की आवश्यकता है। उन्होंने यह भी बताया कि, भारत सरकार द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति ने निष्कर्ष दिया कि नेत्रहीन और कमजोर दृष्टि वाले व्यक्ति न्यायिक कार्य करने में सक्षम हैं।
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