मप्र के कूनो में अफ्रीका से चीते बसाए गए हैं, लेकिन ग्वालियर की सिंधिया रियासत के तत्कालीन माधव महाराज 120 साल पहले यहां अफ्रीका से ही लॉयन लेकर आए थे। ये आदमखोर हो गए थे। लोग इन्हें मारना चाहते थे, मगर महाराज ने मना कर दिया और इन्हें कागजों के जरिए
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ये दिलचस्प किस्सा सुनाया है बचपन से ही बाघों के बीच रहे वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट और रिसर्चर रजा काजमी ने। शुक्रवार को आईएफएस मीट में प्रेजेंटेशन देने भोपाल आए काजमी से भास्कर ने बात की। उन्होंने बताया कि वे बाघों की डीएनए मैपिंग पर रिसर्च कर रहे हैं, ताकि बाघों की वंशावली के बारे में पता चल सके। पढ़िए पूरी बातचीत…
सवाल: एमपी में कागजों से शेरों को पकड़ा गया था, क्या है ये किस्सा? जवाब- आज कूनो में अफ्रीका और केन्या से चीते लाए गए हैं, लेकिन 120 साल पहले ग्वालियर रियासत के तत्कालीन माधव महाराज भी अफ्रीका से 10 शेर लाए थे। लॉर्ड कर्जन भारत के वायसराय थे। कर्जन को बब्बर शेरों के शिकार की इच्छा हुई। उन्होंने जूनागढ़ के राजा के पास संदेश भेजा।
जूनागढ़ के राजा अपने शेरों को बहुत प्यार करते थे, उनका संरक्षण करते थे। उन्होंने संदेश भिजवाया कि शेरों की संख्या बहुत कम है। यह प्रजनन भी धीमे करते हैं, इनका शिकार करना ठीक नहीं होगा। उन दिनों ग्वालियर स्टेट में बड़े अंग्रेज अधिकारियों को शिकार के लिए अक्सर बुलाया जाता था।
कर्जन ने सिंधिया रियासत के तत्कालीन माधव महाराज से संपर्क किया, कहा कि आपके स्टेट के जंगलों में तो 20–25 साल पहले तक शेर रहते थे, आप अपने जंगलों में शेरों को क्यों नहीं बसाते। माधव महाराज ने अपने एजेंट से जूनागढ़ के महाराज को कुछ शेर देने के लिए संदेश भिजवाया। जूनागढ़ के महाराज ने ग्वालियर को भी शेर देने से मना कर दिया।
यहां उन्हें एक बाड़े में रखा गया। कुछ दिनों बाद उन्हें कूनो के जंगल में छोड़ा गया। मगर, ये प्रयोग फेल हो गया। शेर यहां से निकलकर आसपास की रियासतों के जंगलों में चले गए और गांव वालों पर हमला करने लगे। जैसे आज चीते भाग रहे हैं, वैसे ही ये शेर भी भागकर ग्रामीण इलाकों में पहुंच गए थे।
चीता आदमखोर नहीं होता, लेकिन शेर इंसानों को जान से मारने की ताकत रखते हैं। शेरों ने ग्रामीणों पर हमला किया, कुछ शेर आदमखोर हो गए थे। तत्कालीन ग्वालियर महाराज उन्हें मारना नहीं चाहते थे। मगर, दूसरी रियासतों के राजाओं ने अपने लोगों को बचाने के लिए शेरों का शिकार किया।
जो बच गए थे उन्हें जिंदा पकड़ने के लिए ग्वालियर महाराज ने अनोखी तरकीब अपनाई। शेर जब गांव में भैंस का शिकार करने पहुंचे तो गांव के चारों तरफ बड़ा घेरा बनाकर हजारों गोंद लगे कागज बिछा दिए थे। ये कागज शेरों के पंजों पर चिपक गए। शेरों ने मुंह से कागज को हटाने की कोशिश की तो ये उनके मुंह पर चिपक गए।
वो चलने-फिरने की हालत में नहीं रहे। उन्हें जाल फेंककर पकड़ लिया गया। इन्हें फिर बाड़े में रखा गया। इस दौरान उनकी संख्या में बढ़ोतरी हुई। बाद में संघर्ष और शिकार के चलते ये खत्म हो गए। इसका जिक्र ग्वालियर के शिकारखाने के प्रमुख कर्नल केसरी सिंह की किताब वन मैन एंड ए 1000 टाइगर्स में किया गया है।
सवाल: आप बाघों की जीन या डीएनए मैपिंग कर रहे हैं, इसका क्या मकसद है? जवाब- पहले बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में बाघ थे। यह वह राज्य हैं जहां या तो बाघ खत्म हो गए हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं। बाघ इस समय मध्यप्रदेश, कर्नाटक में हैं। अब जो बाघ विलुप्त हो गए वह कैसे थे? उनकी आदतें क्या थी? क्या वंशावली थी, यही जानने के लिए मैं रिसर्च कर रहा हूं।
नेशनल सेंटर फॉर बॉयोलॉजिकल साइंस के रिसर्चर रामकृष्णन मेरा सहयोग कर रहे हैं। बाघों की वंशावली को जानने के लिए हम उन राजा-महाराजाओं के परिवारों से संपर्क कर रहे हैं, जिनके पास बाघों की खाल अब भी मौजूद है। हम उन पुरानी खालों से डीएनए सैंपल लेकर उनकी जांच कर रहे हैं। यह लंबी रिसर्च है, जिसे पूरे होने में तीन साल लगेंगे।
सवाल: एमपी में हाथियों की संख्या बढ़ने की क्या वजह है? जवाब- ये हाथियों की घर वापसी है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्र में मध्य भारत में 7 गज वनों का जिक्र किया है। इन 7 में 5 क्षेत्र आज के मध्य प्रदेश में हैं। आज भी हाथी इन्हीं रूट्स पर आ रहे हैं। अब इसे उनकी डीएनए मेमोरी कहें या प्राकृतिक अनुकूलता, वे अपने पुराने क्षेत्र में ही लौट रहे हैं।
इसके अलावा, मध्यकालीन भारत में भी इस क्षेत्र में हाथी काफी अधिक संख्या में थे। मुगलकाल में बादशाह छोटे राजाओं से ट्रिब्यूट के तौर पर हाथी लेते थे। आइना-ए-अकबरी में भी इसका जिक्र है कि मुगल सेना में हाथियों की सप्लाई इसी क्षेत्र से बड़े पैमाने पर होती थी।
कूनो के जंगलों से अकबर ने ग्वालियर महाराज के साथ मिलकर 70 हाथी पकड़े थे। जहांगीर ने भी 40 से 50 हाथी खंडवा के क्षेत्र से पकड़े थे। जहांगीर का पसंदीदा हाथी यहीं से पकड़ा गया था। अंग्रेजों के सत्ता में आने बाद जब उन्होंने यहां सर्वे किया तो पता चला कि मंडला, रीवा, अनूपपुर, डिंडौरी, सरगुजा के जंगलों में काफी संख्या में हाथी थे। इसके बाद अंग्रेजों ने भी हाथियों को पकड़ना शुरू कर दिया।
सवाल: हाथियों की घर वापसी हो रही है, मगर शहडोल में 10 हाथियों की मौत कोदो खाने से हुई, क्या ऐसा संभव है? जवाब- हां ऐसा हुआ है। 1934 में तमिलनाडु में ही ऐसे ही कोदो मिलटे्स खाकर 13 या 14 हाथियों की मौत हो गई थी। बॉम्बे नेचरल सोसाइटी के जर्नल में इस पर एक नोट प्रकाशित हुआ है। हां यह बहुत दुर्लभ घटना है। हम कह सकते हैं कि 50 साल में होने वाली घटना है, लेकिन पहली नहीं है।
कुछ मौकों पर अन्य जानवरों के भी कोदो खाने से बीमार होने के मामले सामने आए हैं। इसके लिए प्राकृतिक रूप से उस तरह का वातावरण तैयार हो, तब ऐसा होता है। वर्षा अधिक हुई हो, देर तक हो और कच्ची कोदो में फंगस लग जाए, तब ऐसी स्थिति बनती है।
सवाल: वन क्षेत्रों में नक्सलियों के कब्जे के कारण क्या वन्यजीवों के संरक्षण पर प्रभाव पड़ रहा है? जवाब- देखिए मुझे नहीं लगता कि जंगली जानवरों का शिकार करने में नक्सल संगठन भी शामिल होते हैं। क्योंकि, शिकार करने में समय लगता है और कई बार जानवरों का पीछा कई-कई दिन तक करना पड़ता है। ऐसे में नक्सली अगर शिकार में उलझते हैं तो ये उनका नुकसान ही होगा।
सिक्योरिटी फोर्सेज उनके पीछे होती हैं। जंगलों में नक्सलियों के प्रभाव के कारण कई बार सरकारी तंत्र को काम करने में मुश्किलें आती हैं। जिसकी वजह से अन्य शिकारियों को जंगल में घुसने का मौका मिल जाता है।
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