मध्यप्रदेश के उज्जैन में पिछले दिनों पक्षियों के लिए बनाए गए टावर का पर्यावरणविदों ने विरोध किया था। पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्था द नेचर वॉलंटियर्स सोसाइटी ने मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव को पत्र भी लिखा था।
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सोसायटी के अध्यक्ष पद्मश्री भालू मोंढे ने पत्र में लिखा कि ‘अनुभव यह रहा है कि ‘उड़ने वाले चूहे’, जैसा कि भारतीय रॉक कबूतरों को कहा जाता है, इन टावरों पर कब्जा कर लेंगे। यहां पर न तो राज्य पक्षी पैराडाइज फ्लाई कैचर और न ही गोल्डन ओरियोल घोंसला बनाने जाएंगे.” इसलिए ऐसे टावरों को न बनाया जाए।
दरअसल, पर्यावरणविदों की ये चिंता जायज है। ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस यानी एम्स के डॉक्टर डॉक्टर प्रखर अग्रवाल भी कहते हैं कि रिसर्च से ये बात साबित हो चुकी है कि कबूतरों की बीट में बैक्टीरिया, वायरस और कई तरह के एंटीजन होते हैं। इनसे सांस की गंभीर बीमारी हो सकती है।
दिल्ली, बैंगलुरू जैसे महानगरों में कबूतरों की बढ़ती आबादी को कंट्रोल करने के लिए कई तरह के कदम उठाए जा रहे हैं, मगर मप्र में इसे लेकर किसी का ध्यान नहीं है। कबूतरों की बढ़ती संख्या किस तरह से इंसानों के लिए खतरा है, इनसे होने वाली बीमारियां कौन सी है, पर्यावरण संरक्षण में कबूतरों का कितना योगदान है? इन सवालों का जवाब जानने दैनिक भास्कर ने एक्सपर्ट्स से बात की। पढ़िए रिपोर्ट
कबूतर कैसे आपकी सेहत बिगाड़ सकते हैं, इसे एक केस स्टडी से जानते हैं-
ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस यानी एम्स के श्वसन रोग विशेषज्ञ डॉक्टर प्रखर अग्रवाल बताते हैं कि मेरे पास पिछले दिनों निमोनिया से पीड़ित एक मरीज आया था। घरवाले उसका इलाज एक प्राइवेट अस्पताल में करवा रहे थे। जब उसकी हालत में सुधार नहीं हुआ तो वे उसे लेकर एम्स आए।
हमने जब उसकी जांच की तो हमें कुछ अलग तरह के लक्षण नजर आए। इसे लेकर जब परिजन से पूछा कि उनके घर के आसपास कहीं कबूतरों का डेरा है? तो उन्होंने कहा हमारे घर की छत पर ही कबूतरों का झुंड अक्सर आता है, उन्हें रोज दाना भी खिलाते हैं। ये सुनते ही स्थिति साफ हो गई कि ये केस निमोनिया का नहीं बल्कि हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस का है।
क्या है हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस(HP)
डॉ. प्रखर कहते हैं कि यह एक प्रकार का एलर्जिक रिएक्शन है, जिसके कारण फेफड़ों में सूजन आ जाती है। फेफड़ों पर हमला करने वाले ये एलर्जेंस कई माध्यमों से और कई रुपों में हम तक पहुंच सकते हैं। जैसे कि-
- बैक्टीरिया
- फंगई
- मोल्ड (पुरानी खराब चीजों में पैदा होने वाला एक खास तरह का फंगल ऑर्गेनिज्म, लेकिन यह बैक्टीरिया या फंगई से अलग होता है।)
- कुछ खास तरह के केमिकल या धातु
- खास तरह के एनिमल प्रोटीन
- खास तरह के प्लांट प्रोटीन
एक्यूट HP एलर्जी के लक्षण तेजी से उभरते हैं और इन्हें उतनी ही तेजी से दूर भी किया जा सकता है। लेकिन क्रॉनिक HP एलर्जी होने से लंग्स पर गंभीर प्रभाव पड़ते हैं। इसके कारण लंग्स में गहरे घाव हो सकते हैं या अपरिवर्तनीय क्षति भी हो सकती है।
हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस से 50 से 80 फीसदी तक मृत्यु दर
डॉ प्रखर कहते हैं कि कबूतरों का स्वभाव होता है कि वे दाना चुगते हुए इसके बीच ही बीट भी करते हैं। इनके बीट और पंखों के कण हवा में उड़ते हैं जो नाक के रास्ते फेफड़ों में जाते हैं। ज्यादा एक्सपोजर होने पर हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस होता है। गंभीर बात ये है कि इस बीमारी में डेथ रेट 50 से 80 प्रतिशत तक होता है।
सेंट्रल गर्वनमेंट हेल्थ स्कीम के डॉक्टर और सीनियर पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. रोहित जोशी भी इस बात पर जोर देते हैं कि कबूतरों की बढ़ती संख्या बीमारी का कारण बन रही है। डॉक्टर रोहित कहते हैं, मैं 100 मरीज देखता हूं तो इस बीमारी से पीड़ित तीन-चार मरीज आ ही जाते हैं।
एअरकंडीशनर से भी इन्फेक्शन फैलता है
लोग गर्मी से बचने के लिए अपने घरों में एयर कंडीशन (AC) लगाते हैं। AC के यूनिट्स बाहर खुले में होते हैं। ये जगह कबूतरों की फेवरेट होती हैं। कबूतरों की बीट और पंख इनमें गिरते रहते हैं। इससे इन्फेक्शन फैलने का खतरा रहता है। इनमें मौजूद बैक्टीरिया हवा में सर्कुलेट होकर कमरे में आते हैं और हमारी सांस में पहुंच जाते हैं। और धीरे-धीरे लंग्स डैमेज हो जाते हैं।
सीनियर पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. रोहित जोशी बताते हैं कि AC का इस्तेमाल करने से पहले इसकी सर्विसिंग करा लेनी चाहिए। फिल्टर को साफ लें। जिन जगहों पर कबूतरों की बीट या पंख हैं उसे अच्छी तरह से धो देना चाहिए ताकि कॉमन एलर्जेंस खत्म हो जाएं।
90 के दशक में सामने आई थी बीमारी
भोपाल के गांधी मेडिकल कालेज के पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. लोकेंद्र दवे बताते हैं कि मुंबई में गेटवे आफ इंडिया पर सैकड़ों कबूतर दाना चुगते हैं। यहां पहुंचने वाले टूरिस्ट के लिए ये आकर्षण का केंद्र होते हैं। लोग शौक से इनके साथ फोटो खिंचाते हैं, दाना डालते हैं, मगर इसी गेटवे ऑफ इंडिया के कबूतरों की वजह से 90 के दशक में फेफड़ों की गंभीर बीमारी हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस का पता चला था।
इस बीमारी से पीड़ित लोग जब अस्पताल पहुंचे और उनकी पूरी हिस्ट्री चेक की गई तो उसका कनेक्शन गेट वे ऑफ इंडिया के कबूतरों से जुड़ा था। पहली बार ये महसूस हुआ कि कबूतर ह्यूमन बॉडी पर इस तरह से भी असर डाल सकते हैं।
वे बताते हैं कि कबूतर के बीट में एक एंटीजन होता है जिससे हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस (एचपी) का खतरा बढ़ जाता है। इसका सही से इलाज नहीं किया जाए तो धीरे-धीरे यह बीमारी बढ़ सकती है और इससे इंटरस्टीशियल लंग्स डिजीज हो सकती है. इसमें फेफड़े के अंदर सूजन और फिर फाइब्रोसिस भी हो सकता है।
डॉ. दवे कहते हैं कि छोटी उम्र में यह बीमारी नहीं होती है, अगर 11 साल की उम्र में हुई है तो फिर इसके कारणों का पता करते हैं। आमतौर पर ये बीमारी 20-25 साल की उम्र के बाद ही होती है. हालांकि, ये भी जरूरी नहीं है कि कबूतर के ज्यादा संपर्क में रहने वाले सभी व्यक्तियों को यह बीमारी हो जाए।
पर्यावरणविद् बोले- कबूतरों को दाना डालना प्रतिबंधित करना चाहिए
एनजीओ ‘द नेचर वॉलंटियर्स सोसाइटी के अध्यक्ष पद्मश्री भालू मोंढे कहते हैं कि बेंगलुरु, जिसे भारत की सिलिकन वैली कहा जाता है। वहां बहुमंजिला इमारतों पर नॉयलोन की जाली लगाई गई है। दिल्ली में इसी साल जुलाई के महीने में 11 साल के एक बच्चे को कबूतरों की वजह से फेफड़े की गंभीर बीमारी हुई।
इसके बाद म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन ऑफ दिल्ली यानी एमसीडी कबूतरों को दाना खिलाने पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी कर रहा है। मगर, मप्र में अभी तक सरकार ने कोई पहल नहीं की है। उज्जैन में तो पक्षियों के रहने के लिए टावर बना दिया है।
वे कहते हैं कि इस टावर में तोते, चिड़ियां या दूसरे पक्षी अपना घोंसला कभी नहीं बनाएंगे, बल्कि यहां कबूतर ही डेरा जमाएंगे। भालू मोंढे कहते हैं कि कबूतर शहरों की दूसरी समस्याओं जैसे ही एक बड़ी समस्या है और स्वास्थ्य को लेकर चुनौती पेश कर रहे हैं।
वास्तुविद बोले- कबूतर शुभ नहीं है
वास्तुविद भी कबूतर को शुभ नहीं मानते। आर्किटेक्ट और वास्तुविद सुयश कुलश्रेष्ठ बताते हैं, वास्तु शास्त्र में लिखा है कि कबूतर जहां डेरा डालते हैं और अंडे देते हैं। वह घर आबाद नहीं रहता। कुलश्रेष्ठ बताते हैं, भले ही कबूतरों और बीमारियों का संबंध वैज्ञानिक रूप से अब सामने आया हो, लेकिन हमारे पूर्वज जानते थे कि यह बीमारियां लाते हैं।
इनका इस्तेमाल संदेश वाहक के रूप में जरूर किया जाता था, मगर इन्हें घर के भीतर नहीं पाला जाता था। बल्कि घर के बाहर दूर इनके रहने का इंतजाम किया जाता था।
कबूतरबाजों का दावा, इनसे बीमारी नहीं बल्कि फायदे
डॉक्टर, पर्यावरणविद् और वास्तुविदों की राय से कबूतरबाज इत्तफाक नहीं रखते। राजधानी भोपाल में लंबे समय से कबूतर पालने की रिवायत रही है। पुराने शहर में कई लोग पीढ़ियों से कबूतर पालते हैं। कबूतर पालने वाले परीबाजार के रहने वाले ताहिर खान कहते हैं मैं 35 सालों से कबूतर पाल रहा हूं।
कबूतरों की एक खास किस्म कासनी होती है, इनका रंग इन्हें खास बनाता है। मेरे पास यही कासनी कबूतर है, मैं टूर्नामेंट में भी हिस्सा लेता हूं। इतने लंबे समय में न तो मुझे और न ही परिवार में किसी को सांस की बीमारी नहीं हुई। हमारे बड़े- बुजुर्ग कहते थे कि कबूतरों के पंखों की हवा बच्चों के लिए अच्छी होती है, उन्हें किसी भी तरह की सर्दी हो तो इनके अंडे खिलाने से वह ठीक हो जाते हैं।
घरेलू नहीं बल्कि जंगली कबूतर हैं खतरनाक: अब्दुल अली
बुधवारा के गिन्नौरी स्कूल के पास रहने वाले आगा अब्दुल अली कहते हैं कि मैं अपने कबूतरों को वो डाइट देता हूं जो एथलीट की होती है। मैं इन्हें ड्राई फ्रूट से लेकर मल्टी विटामिन और महंगे सप्लिमेंट देता हूं। इसकी वजह से मई की तपती गर्मी में भी मेरा कबूतर 11 घंटे से ज्यादा की उड़ान भरने की क्षमता रखता हैं।
आगा अब्दुल अपने कबूतरों के लिए एक लाख रु. कीमत के पिंजरे बनवा रहे हैं। वे कहते हैं कबूतरों से बीमार होने की रिसर्च मैने पढ़ी है लेकिन हमारे कबूतरों के दड़बों में हमेशा सफाई रखी जाती है। कबूतर पालने और उड़ाने के शौकीन मोहम्मद फैजान उर्फ शिवरी बताते हैं -हम कबूतरों को बीमारी से बचाने के लिए वैक्सीन लगाते हैं तो दवाएं भी देते हैं।
वे कहते हैं कि जो कबूतर पालतू नहीं है उनकी वजह से बीमारी फैलने का खतरा हो सकता है। उन्हें वैक्सीन भी नहीं लगती, न ही उनकी आबादी नियंत्रित होती है।
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