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जिजीविषा: जब हम लक्ष्य प्राप्त करते हैं तब हमारी अपेक्षाएं बदल जाती हैं; क्या है जो खुशी की नींव को हिला सकता?


जिजीविषा
– फोटो : अमर उजाला

विस्तार


कल्पना कीजिए कि एक सुबह आप नींद से जागे और आपकी सम्पूर्ण संपत्ति- नौकरी, घर, रिश्ते और आपकी पहचान, सब लुप्त हो चुकी है। कोई चेतावनी नहीं, आगे की तैयारी करने का कतई समय नहीं, सहसा सब शून्य। प्रश्न यह है कि क्या आप तब भी शांत होंगे? और अगर नई शुरुआत करने का विचार कर के मुस्कुरा सकेंगे तो भी कितना? मैं सतही खुशी की बात नहीं कर रही हूं। मेरा तात्पर्य है सच्ची, गहरी, अडिग आतंरिक संतुष्टि। क्या आप अभी भी शांति महसूस करेंगे, या यह सब खोने पर आप भय, क्रोध और लज्जा के चक्र में डूब जाएंगे? नैराश्य में खो जाएंगे? 

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यहां तय होता है कि आपकी मनोवैज्ञानिक स्थिति क्या है, और आप कितने आध्यात्मिक हैं। इन दोनों में सामंजस्य भीषण क्षति का सामना करने पर मानवीय अनुभव की गहराई से परिचित कराता है। आपकी आध्यात्मिकता का माप इस बात से निर्धारित नहीं होता है कि आप कितनी बार ध्यान करते हैं या अनुष्ठानों में सम्मिलित होते हैं। यह आपकी उस क्षमता से निर्धारित होता है जब बाह्य सब कुछ छीन लिया जाता है और आप फिर भी संतुष्ट रहते हैं। 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रसन्नता को अक्सर अधिग्रहण माना जाता है। हमारे पास जितना अधिक होगा, हम उतना ही अधिक खुश रहेंगे, चाहे वह वित्तीय सुरक्षा हो, कोई प्रिय साथी हो, एक सफल करियर हो या कोई नया गैजेट हो। हम यही मानते हुए बड़े हुए हैं कि बाहरी स्रोत खुशी लाते हैं। परीक्षा में अधिक अंक आएंगे तो हमें हमारी पसंद का खिलौना मिलेगा। काम पर बेहतर प्रदर्शन करेंगे तो पदोन्नति होगी और वेतन बढ़ेगा। अच्छा वेतन होगा तो परिवार का अच्छे से पोषण होगा। जब ये सभी स्थितियां अच्छी होंगी तब हम प्रसन्न रहेंगे। अर्थात जितना अधिक, उतनी प्रसन्नता।

फिर भी, सत्य तो यह है कि जब हम अपनी खुशी को बाहर की वस्तुओं से तोलते हैं, तो हम स्वयं को दु:ख के लिए स्वतः ही तैयार कर लेते हैं। यह धारणा सुखद अनुकूलन (हेडोनिक एडाप्टेशन) की मनोवैज्ञानिक अवधारणा के समान है। इसमें व्यक्ति महत्वपूर्ण सकारात्मक या नकारात्मक घटनाओं का अनुभव करने के बाद खुशी के आधारभूत स्तर पर लौट आते हैं। उदाहरणार्थ, कभी आपने किसी को यह कहते हुए सुना है, ‘मैं तब खुश रहूंगा जब ऐसा होगा कि…’ ? अर्थात, खुशी और सफलता की तलाश एक अंतहीन दौड़ बन जाती है–किन्तु जिस क्षण हम अपने लक्ष्य प्राप्त करते हैं, हमारी अपेक्षाएं बदल जाती हैं, और लक्ष्य बदल जाते हैं। जब आपकी खुशी बाहरी कारकों पर निर्भर करती है तो उन्हें खोना आपके मानसिक संतुलन और खुशी की नींव को हिला सकता है। ऐसी स्थिति में आध्यात्मिकता सिखाती है कि सच्चा संतोष भीतर से आता है। यही वह शांति है जो अराजकता में भी आपके साथ बनी रहती है और आप कुछ भी खोने से भयभीत नहीं होते।

भगवद्गीता में जीवन के युद्ध के मैदान में अर्जुन समस्त खोने के डर से विचलित हो जाते हैं। परिवार, मित्र, राज्य। वे अपने कार्यों के उद्देश्य और निर्णयों पर सवाल उठाते हैं। श्रीकृष्ण उन्हें कहते हैं कि परिणाम से स्वयं को पृथक कर के निर्णय लेना ही धर्म है। अपना कर्तव्य करो, लेकिन परिणामों की अपेक्षा से परे। आध्यात्मिकता का सही मापदंड परिस्थितियों की परवाह किए बिना, केन्द्रित रहने और अपने भीतर शांति पाने की क्षमता है। यह संज्ञानात्मक पुनर्रचना यानि कोगनिटिव रीफ्रेमिंग की मनोवैज्ञानिक अवधारणा के साथ संरेखित है, जहाँ व्यक्ति किसी स्थिति को अधिक सकारात्मक प्रकाश में देखने के लिए अपना दृष्टिकोण बदलता है। श्रीकृष्ण का ज्ञान दर्शाता है कि आध्यात्मिकता हमें बाहरी परिस्थितियों से स्वतंत्र खुशी की आंतरिक स्थिति विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करती है, जो मानसिक कल्याण का समर्थन करने वाली समता की भावना उत्पन्न करती है।

अक्सर सब कुछ खो देना एक गहन आध्यात्मिक सबक और अवसर की भूमिका निभाता है। पढ़ने में यह अजीब लग सकता है, लेकिन जब हम विचलित करने वाली चीजों और हमें परिभाषित करने वाली चीज़ों से अनासक्त हो जाते हैं, तो हम इस सच्चाई का सामना करते हैं कि हम कौन हैं। किन्तु आखिर हम हैं कौन? क्या हमारा अस्तित्व हमारे नाम, हमारे पद या हमारी संपत्ति से निर्धारित है? 

एक प्रसिद्ध ज़ेन बौद्ध कहानी है। एक भिक्षु था जो अत्यंत ही सादगी का जीवन जीता था। एक रात, एक चोर उसकी झोपड़ी में घुस गया। लेकिन, भिक्षु के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। चोर को भगाने की बजाए, उसने चोर को अपना वस्त्र देते हुए कहा- ‘तुम मुझसे मिलने के लिए बहुत दूर से आए हो और तुम्हें खाली हाथ वापस नहीं जाना चाहिए’। चोर के जाने के बाद, भिक्षु ने चांद को देखा और सोचा कि काश वह चोर के साथ इसकी सुंदरता साझा कर पाता। भिक्षु की खुशी संपत्ति या सुरक्षा से बंधी नहीं थी; यह वर्तमान क्षण के साथ एक गहरे संबंध और इस समझ से उपजी थी कि कोई भी बाहरी चीज उसकी आंतरिक शांति को प्रभावित नहीं कर सकती। प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने और कठिन अनुभवों से उबरने की क्षमता न सिर्फ उस भिक्षु की आध्यात्मिक सुदृढ़ता को दर्शाती है, अपितु उसकी अनुकूलनशीलता का भी प्रदर्शन करती है।

जब हम “सब कुछ खोने” की बात करते हैं, तो हम अक्सर भौतिक नुकसान के बारे में सोचते हैं- जैसे कि हमारा घर या वित्त। हालांकि, यह नुकसान और भी गहरा हो सकता है – रिश्तों, या यहां तक कि हमारे स्वास्थ्य को भी खोना। जब हम अपनी पहचान खो देते हैं तो क्या होगा? अगर आपने अपनी पहचान सफल होने के इर्द-गिर्द बनाई है, तो जब आप असफल होते हैं तो क्या होगा? अगर आपकी पहचान स्नेह से जुड़ी है, तो जब कोई रिश्ता खत्म होगा तो क्या होगा? सच्ची आध्यात्मिकता में उस हानि में भी शांति पाने शामिल है। इसका अर्थ यह नहीं है कि आपको दर्द या उदासी का अनुभव नहीं होगा- ये भावनाएं मानव जीवन का हिस्सा हैं। किन्तु यह समझना आवश्यक है कि आपकी खुशी बाहरी पहचान पर निर्भर नहीं करती है। मनुस्मृति में कहा गया है कि जो दुनिया से अनासक्त है और जिसने सभी द्वंद्वों को पार कर लिया है, वही सच्चा ऋषि है। यही अध्यात्मिक अनुकूलनशीलता है।  

यह सिद्धांत आध्यात्मिकता में वैराग्य के महत्व पर जोर देता है, जो हमें बिना किसी लगाव या निर्णय के अपने विचारों और भावनाओं का निरीक्षण करना सिखाता है। बच्चे इस प्राकृतिक ज्ञान का प्रतीक होते हैं, जो आसक्ति से मुक्त होकर दुनिया में प्रवेश करते हैं। एक बच्चा अपने पसंदीदा खिलौने के साथ खेलने में तल्लीन हो सकता है और जब वह खिलौना उससे छीन लिया जाता है, तो वह कुछ पल के लिए रो सकता है लेकिन जल्दी ही किसी और वस्तु में खुशी पा सकता है। उनकी खुशी तरल होती है, किसी एक वस्तु पर स्थिर नहीं होती। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हम भौतिक, भावनात्मक और मानसिक संरचनाओं से चिपके रहते हैं। हम उन चीजों के इर्द-गिर्द अवरोध बनाते हैं जो हमें खुश करती हैं, यह मानते हुए कि कुछ चीजों या लोगों के बिना, हम खो जाएँगे। 

हालांकि, सच्ची आध्यात्मिकता हमें उस बचपन की अवस्था में लौटने के लिए आमंत्रित करती है, जहां खुशी जीवित और मौजूद होने के सरल कार्य में मौजूद होती है। इस आध्यात्मिकता को विकसित करने के लिए, हमें अलगाव का अभ्यास करना चाहिए। यहां अलगाव से मेरा अर्थ दुनिया को त्यागना या खुद को अलग-थलग करना नहीं है; इसके बजाय, बिना उससे आसक्त हुए जीवन के अनुभवों का आनंद लेना है। यह पहचानना है कि जब हम अपने आस-पास की चीजों और लोगों की सराहना और प्यार कर सकते हैं, तो वे हमारी खुशी को परिभाषित नहीं करते हैं।

छोटे से कदम से शुरुआत करें: हो सकता है कि आप कोई छोटी-सी चीज खो दें, जैसे कि कोई पसंदीदा पेन। निराशा या उदासी के साथ प्रतिक्रिया करने के बजाय, उसे जाने देना सीखें। स्वयं से पूछें, ‘क्या मैं इसके बिना भी वही हूं?’ इसका जवाब हमेशा हां होता है। यह अभ्यास स्वीकृति और प्रतिबद्धता प्रदान करेगा और आपके विचारों और भावनाओं को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करेगा। 

आध्यात्मिकता की अंतिम परीक्षा यह नहीं है कि जब जीवन सुचारू रूप से चल रहा होता है तो हम कितना शांत महसूस करते हैं, बल्कि यह है कि जब सब कुछ बिखर जाता है तो हम कितने केंद्रित रहते हैं। यदि आप सब कुछ खो सकते हैं और फिर भी अपने चित्त और मानस में शांत महसूस करते हैं, तो समझिए कि आपने आध्यात्मिकता के सार को छू लिया है। तो, यदि आप सब कुछ खो दें तो आप कितने खुश होंगे – यदि इस प्रश्न के लिए आपका उत्तर है – ‘मैं अभी जितना खुश हूं, उतना ही खुश रहूंगा’ तो आप वास्तव में आध्यात्मिक जीवन जी रहे हैं। सच्ची खुशी, आत्म में निहित है, अडिग है और इसे छीना नहीं जा सकता।

(लेखक आईआईएम इंदौर में सीनियर मैनेजर, कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन एवं मीडिया रिलेशन पर सेवाएं दे रही हैं।) 

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2024-10-13 23:08:20