1 नवंबर 1956 की आधी रात को जब राज्यपाल डॉ. भोगराजू पट्टाभि सीतारमैया मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल को लाल कोठी कहे जाने वाले राजभवन में शपथ दिला रहे थे, तो उन्हें किसी ने याद दिलाया कि आज तो अमावस की रात है।
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इस पर शुक्ल ने कहा, ‘पर इस अंधेरे को मिटाने के लिए हजारों दीये भी तो जल रहे हैं।‘ उस रात दिवाली थी। 68 साल बाद 2024 को भी मध्यप्रदेश के स्थापना दिवस पर दिवाली है।
आखिर कैसे अस्तित्व में आया नया मध्यप्रदेश? इंदौर और ग्वालियर जैसे धनी शहरों वाला मध्यप्रांत कैसे मध्यप्रदेश में शामिल हुआ? नेता और अफसर जबलपुर को राजधानी मान जमीन खरीदते रहे लेकिन नेहरू और पटेल ने बाजी क्यों पलट दी? राजधानी के लिए कैसे भोपाल का चुनाव हुआ? जब नया प्रदेश बना तो चार राज्यों के अफसर-कर्मचारियों के बीच कई तरह के विवाद हुए। यहां तक कि पोहे को लेकर भी अफसर-कर्मचारियों में झगड़ा होता था। आइए चलते हैं यादों के खट्टे-मीठे सफर पर…
मध्य प्रांत, मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और भोपाल इन चार राज्यों को मिलाकर मध्य प्रदेश बना।
आखिर नए राज्य की जरूरत क्यों पड़ी मध्यप्रदेश का जन्म एक विचित्र संयोग था। यहां के रहने वालों ने कभी किसी ऐसे प्रदेश की मांग नहीं की थी, लेकिन जब दिसंबर 1952 में श्रीरामुलु नाम का एक व्यक्ति तेलुगू भाषी राज्य की मांग को लेकर भूख हड़ताल करते हुए मर गया और आंध्र प्रदेश का गठन हुआ, तब देश के बाकी इलाके भी भाषायी आधार पर राज्य की मांग करने लगे।
तब सुप्रीम कोर्ट के जज सैयद फजल अली की अध्यक्षता में कवालम माधव पाणिक्कर और डॉ. हृदयनारायण कुंजरु की सदस्यता में 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया।
मध्यप्रदेश ऐसा राज्य बना, जिसकी कोई भाषायी पहचान नहीं थी। गुना से हिन्दू महासभा के सांसद विष्णु घनश्याम देशपाण्डे ने संसद में नए राज्य का विरोध किया। पुनर्गठन की बहस में बोलते हुए उन्होंने कहा-
अगर कोई प्रांत है, जिसका अपना जीवन नहीं है… लाइफ ऑफ इट्स ओन नहीं है, तो वह मध्यप्रदेश है।
सिलसिलेवार ढंग से उस समय के हर प्रदेश के हालात समझिए विंध्य प्रदेश: ये राज्य आजादी के पहले बघेलखंड और बुंदेलखंड के रूप में देश में जाना जाता था। मूलत: 35 राजे-रजवाड़ों का एक समूह था। आजादी के बाद जब सरदार पटेल ने नए देश का निर्माण शुरू किया तो उन्होंने अलग विंध्य प्रदेश का गठन किया। यह राज्य शुरू से ही विवादों में रहा और सन 1951 के अंत में इसे विधिवत विधानसभा और मंत्रिमंडल बनाने की इजाजत मिली।
चार राज्यों को मिलाकर जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ तो सबसे ज्यादा विरोध सबसे धनी प्रदेश माने जाने वाले मध्य भारत का था।
भोपाल राज्य: चार राज्यों में सबसे छोटा भोपाल राज्य था। ये अपने शासक नवाब हमीदुल्लाह के बगावती तेवरों के कारण सबसे चर्चित था। आजादी के डेढ़ साल तक नवाब ने भोपाल रियासत का भारत संघ में विलय नहीं किया था। सरदार पटेल के हस्तक्षेप के बाद भोपाल में 30 सदस्यीय विधानसभा का निर्माण हुआ और डॉ. शंकरदयाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाया गया।
मध्य प्रांत( मध्य प्रदेश):यह सबसे बड़ा राज्य था। इसमें नागपुर, विदर्भ के 8 जिलों सहित पूरा छत्तीसगढ़ भी शामिल था। राज्यों के विलीनीकरण के दौरान अंग्रेजों की प्रशासकीय इकाई सेंट्रल प्रॉविन्स और बरार को 1950 में मध्यप्रदेश बना दिया गया था। यहां के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल थे। ये सबसे व्यवस्थित राज्य इसलिए भी था क्योंकि यह अंग्रेजों के समय से एक प्रशासनिक इकाई था।
1956 में जब नया राज्य बनना तय हो गया तो अक्टूबर में चारों राज्यों के सभी कांग्रेसी विधायकों की संयुक्त बैठक नागपुर के विधानसभा भवन में की गई। बैठक में सर्वसम्मति से रविशंकर शुक्ल को कांग्रेस विधायक दल का नेता चुना गया।
राज्य बना तो राजधानी को लेकर उठापटक शुरू हो गई
1 नवंबर 1956 को राज्यों के पुनर्गठन के बाद जब नया मध्यप्रदेश बना तब राजधानी को लेकर काफी जद्दोजहद हुई। जहां ग्वालियर और इंदौर मध्यभारत के बड़े शहर थे, वहीं रायपुर रविशंकर शुक्ल का गृहनगर था। इसके बाद जबलपुर का भी दावा मजबूत था। पुनर्गठन आयोग ने अपनी सिफारिश में जबलपुर का नाम राजधानी के लिए प्रस्तावित किया था। कहा जाता है कि सेठ गोविंददास ने जबलपुर को राजधानी बनवाने के लिए सबसे ज्यादा पहल की थी। उन्हीं दिनों विनोबा भावे ने जबलपुर को संस्कारधानी की उपमा भी दी थी।
जबलपुर के राजधानी न बन पाने का एक कारण ये भी माना गया कि वहां के समाचार पत्रों में खबर प्रकाशित हुई कि सेठ गोविंददास के परिवार ने जबलपुर– नागपुर रोड पर सैकड़ो एकड़ जमीन खरीद ली है। अखबारों में छपा कि सेठ परिवार ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि जब जबलपुर राजधानी बनेगी तो वहां जमीनों का अच्छा मुआवजा मिलेगा। ये बात जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु को पता चली तो भोपाल का पक्ष और मजबूत हो गया।
भोपाल को राजधानी बनाने का एक कारण और था।
विंध्यप्रदेश में समाजवादी आंदोलन को कमजोर करना। जबलपुर राजधानी बनता तो महाकौशल के साथ विंध्य भी राजनीतिक सरगर्मी का केंद्र रहता। जबलपुर को राजधानी न बनाने का एक तर्क और दिया गया कि वहां सरकारी कर्मचारी और कार्यालयों के लिए उपयुक्त इमारतें नहीं हैं। इधर, डॉ. शर्मा प्रधानमंत्री पं नेहरु यह समझाने में सफल रहे कि भोपाल में बहुत सारी सरकारी इमारतें और जमीन खाली हैं। यहां जमीन खरीदने की जरुरत नहीं होगी।
नेता-अफसरों के जबलपुर में जमीनें खरीदने की सूचना जब पं. नेहरू और सरदार पटेल तक पहुंची तो दोनों ने भोपाल को राजधानी बनाने का फैसला कर लिया।
जबलपुर चुप नहीं बैठा, विरोध में बंद रखा
जब भोपाल को राजधानी बनाने का फैसला हुआ तो जबलपुर चुप नहीं बैठा। 5 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल दिल्ली में जवाहरलाल नेहरु, मौलाना आजाद, लालबहादुर शास्त्री ओर गोविंद वल्लभ पंत से मिला। ये प्रतिनिधिमंडल दिल्ली से खाली हाथ लौट आया। उस साल जबलपुर में दिवाली नहीं मनी। एक-दो घरों को छोड़कर शहर में कहीं भी रोशनी नहीं की गई, जिस दिन मध्यप्रदेश बना, उस दिन विरोधस्वरुप जबलपुर बंद रहा।
भोपाल के पक्ष में ये तीन बातें रहीं
राजनीतिनामा के लेखक वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी कहते हैं कि भोपाल को राजधानी बनाने के पीछे कई वजह थीं। सबसे अहम वजह थी उस समय भोपाल नवाब की हरकतें। नवाब पाकिस्तान के संस्थान जिन्ना के करीब थे। वे चाहते थे कि भोपाल राज्य पाकिस्तान में मिले। ये भाव लोगों के भीतर पैदा न हो, इसलिए नेहरु और पटेल ने गुपचुप ये तय किया कि हमें भोपाल में सीधा नियंत्रण रखने के लिए भोपाल को राजधानी बनाना चाहिए।
दूसरा तर्क ये दिया गया कि भोपाल में सरकारी जमीन ज्यादा है।
तीसरी बात ये थी कि जबलपुर को राजधानी बनाने की चर्चा के बीच वहां कुछ राजनीतिज्ञों ने जमीनें खरीदनी शुरू कर दी थी। जब नेहरु को ये पता चला तो उन्होंने भोपाल को ही राजधानी बनाने पर सहमति दी।
खान ‘ सरदार पटेल और भारतीय मुसलमान ‘ किताब के हवाले से कहते हैं कि सरदार पटेल ने भोपाल नवाब काे पत्र लिखकर प्रसन्नता भी जाहिर की थी।
इसमें पटेल ने लिखा है कि ‘ स्पष्ट बात तो ये है कि आपकी रियासत के भारतीय राष्ट्र में विलय को मैं न अपनी जीत मानता हूं और न ही आपकी हार। अंतत: विजय न्याय एवं उपयुक्तता की हुई है और इस विजय में मैंने और आपने अपनी-अपनी भूमिकाएं ही निभाई हैं। हमारा यह मानना है कि आपका पिछला रुख भारत तथा आपकी अपनी रियासत दोनों के हितों के प्रतिकूल था। निष्ठापूर्ण मैत्री के आपके प्रस्ताव का मैं स्वागत करता हूं। पिछले कुछ महीनों में मेरे लिए यह बहुत निराशा और दुख की बात रही कि आपकी असंदिग्ध योग्यता और प्रतिभा नाजुक समय में देश को उपलब्ध नहीं थी।
भोपाल राजधानी बना तो नवाब की इमारतों में सरकारी दफ्तर बने
आज जहां पुलिस मुख्यालय है, वहां भोपाल नवाब की सेना की छावनी हुआ करती थी। विधानसभा के लिए मिंटो हाॅल को चुना गया। जहां आज भोपाल कलेक्टर का दफ्तर है, वहां से लेकर लोकायुक्त दफ्तर तक का पूरा हिस्सा मंत्रालय में तब्दील हो गया। इसलिए कलेक्टर कार्यालय को पुराना सचिवालय भी कहा जाता है। लोकायुक्त कार्यालय जहां है, वहां सामान्य प्रशासन विभाग था। इसलिए इस इलाके को आज भी जीएडी चौराहा कहा जाता है। मुख्य सचिव जीएडी दफ्तर में ही बैठा करते थे।
नया राज्य, नई राजधानी, नए लोग, नए झगड़े…
जब भोपाल राजधानी बना तो चारों राज्यों के अफसर और कर्मचारियों ने भोपाल में आमद दी। वर्तमान कलेक्टोरेट बिल्डिंग को सचिवालय बनाया गया, लेकिन तब अलग-अलग क्षेत्र से आए कर्मचारियों के बीच बड़े विवाद थे। मध्यभारत के लोग विंध्य के निवासियों को हेय दृष्टि से देखते थे। वहीं भोपाल के लोग सभी को अपने यहां विदेशी मानते थे।
उस समय के सचिवालय के बाहर का दृश्य देखने लायक होता था। जितनी भी चाय-पान की गुमटियां थीं, वे सभी विंध्य और मध्य भारत के बाबुओं में बंटी हुई थी। रीवा और उज्जैन के बाबू अपने साथ अपने चाय-पान वाले पसंदीदा दुकानदारों को लाए थे। जहां विंध्य के लोगों को मीठा पोहा खराब लगता था, वहीं मालवा के लोग मीठे पोहे के शौकीन थे। मालवा के लोगाें को विंध्य की बोली भी पसंद नहीं थी।
राजनीतिनामा के लेखक वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी कहते हैं कि लोगों की भाषा शैली अलग थी। लिखने के तरीके अलग थे। काम करने के तरीके सबके अलग थे। आपस की बातचीत में भी तकलीफ थी। विंध्य के बाबू को जब मालवा के बाबू से कुछ कहना होता था तो दिक्कत होती थी। उसे लेकर मतभेद और मनभेद शुरू हुए। इसके पीछे एक और कारण था कि जो प्रशासनिक कर्मचारी अपने मूल राज्य में छोटे ओहदे पर थे, वो नए मध्यप्रदेश में प्रमोशन लेकर आए। वो भी मनमुटाव का एक कारण था।
1958 में नेहरु ने रखी वल्लभ भवन की नींव
राज्य बनने के साथ ही नई राजधानी बनाने का काम भी शुरू हुआ। दूसरे मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू ने दक्षिण की तरफ एक सुनसान जगह को मंत्रालय के लिए चुना। इस इलाके का नाम लक्ष्मीनारायण गिरी रखा गया। 1958 में नेहरु ने वल्लभ भवन की आधारशिला रखी। वल्लभ भवन को बनने में 7 साल का समय लगा। सचिवालय का नाम वल्लभ भवन तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र के कहने पर रखा गया। मिश्र वल्लभ भाई पटेल से बहुत प्रभावित थे।
उस जमाने में भोपाल का सबसे आखिरी छोर रोशनपुरा चौराहा हुआ करता था। जब भोपाल राजधानी बना तो कर्मचाारियों के लिए नाॅर्थ टीटीनगर और साउथ टीटी नगर बना। उसके बाद भोपाल में एक नंबर, दो नंबर से लेकर ग्यारह नंबर स्टॉप तक बिल्डिंगें बनती रहीं।
भोपाल राजधानी बना तो बाकी शहरों को संतुष्ट करने की कोशिश हुई। जबलपुर को हाईकोर्ट, ग्वालियर को रेवेन्यू बोर्ड और इंदौर को लोक सेवा आयोग दिया गया।
भोपाल राज्य तो था लेकिन जिला नहीं था
भोपाल राज्य की राजधानी तो था लेकिन ये सीहोर जिले का हिस्सा था। उस समय भोपाल की आबादी 50 हजार हुआ करती थी। सीहोर और रायसेन- दो ही जिले भोपाल राज्य में थे। राजधानी बनने के 16 साल बाद 1972 में भोपाल को अलग जिला बनाया गया।
सीएम बंगले के लिए आईजी का बंगला खाली कराया
भोपाल काे राजधानी के रुप में चुना गया तो सवाल आया कि सीएम बंगला कौनसा होगा? दैनिक भास्कर के वरिष्ठ पत्रकार अलीम बजमी कहते हैं कि बहुत बंगले देखे गए लेकिन सीएम बंगले के लिए तब के आईजी एसएन आगा का बंगला पसंद आया। यही बंगला अब वीआईपी गेस्ट हाउस है।
हालांकि मुख्यमंत्री पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र इस बंगले में नहीं रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे श्यामला हिल्स में किराए के मकान में रहे। इसकी वजह ये बताई गई कि ये बंगला शुभ नहीं है।
शिक्षा में भी टकराव की स्थिति
जब शंकरदयाल शर्मा शिक्षा मंत्री थे तो उन्होंने बच्चों की हिंदी पाठ्यपुस्तक में धर्मनिरपेक्षता की नियत से कुछ परिवर्तन किए। उन दिनों हिंदी वर्णमाला में ग– गणेश पढ़ाया जाता था। शर्मा ग को गणेश की जगह ग- गधा पढ़वाना शुरू कर दिया।
डाॅ. शर्मा भोपाल राज्य के मुख्यमंत्री रहे थे, इसलिए वहां किसी देवी–देवता का पाठ्यक्रम में होना उचित नहीं माना जाता था। इसलिए भोपाल राज्य में ग- गधे का पढ़ाया जाता था जबकि मध्यप्रदेश में ग-गणेश पढ़या जाता था।
मध्य प्रदेश राज्य में शामिल हुए चारों विधानसभाओं के बारे में जानिए…
विंध्य प्रदेश: 4 अप्रैल, 1948 को विंध्य प्रदेश की स्थापना हुई और इसे बी कैटेगरी के राज्य का दर्जा दिया गया। इसके राजप्रमुख श्री मार्तंड सिंह हुए। सन् 1950 में यह राज्य बी से सी कैटेगरी में कर दिया गया।
सन् 1952 के आम चुनाव में यहां की विधान सभा के लिए 60 सदस्य चुने गए, जिसके अध्यक्ष श्री शिवानन्द थे। 1 मार्च, 1952 से यह राज्य उप राज्यपाल का प्रदेश बना दिया गया। पं. शंभूनाथ शुक्ल उसके मुख्यमंत्री बने। विंध्य प्रदेश विधान सभा की पहली बैठक 21 अप्रैल, 1952 को हुई।
इसका कार्यकाल लगभग साढ़े चार वर्ष रहा और लगभग 170 बैठकें हुई। श्याम सुंदर ‘श्याम’ इस विधान सभा के उपाध्यक्ष रहे।
तत्कालीन विंध्य प्रदेश का विधानसभा भवन रीवा में था।
भोपाल राज्य: प्रथम आम चुनाव के पूर्व तक भोपाल राज्य केन्द्र शासन के अंतर्गत मुख्य आयुक्त द्वारा शासित होता रहा। इसे 30 सदस्यीय विधान सभा के साथ सी कैटेगरी के राज्य का दर्जा प्रदान किया गया था। 30 सदस्यों में 6 सदस्य अनुसूचित जाति और 1 सदस्य अनुसूचित जनजाति से और 23 सामान्य क्षेत्रों से चुने जाते थे। 30 चुनाव क्षेत्रों में से 16 एक सदस्यीय और सात द्विसदस्यीय थे। प्रथम आम चुनाव के बाद विधिवत विधान सभा का गठन हुआ। भोपाल विधान सभा का कार्यकाल मार्च, 1952 से अक्टूबर, 1956 तक लगभग साढ़े चार साल रहा। भोपाल राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. शंकरदयाल शर्मा और इस विधान सभा के अध्यक्ष सुल्तान मोहम्मद खां और उपाध्यक्ष लक्ष्मीनारायण अग्रवाल थे।
पूर्व भोपाल राज्य का विधानसभा भवन भोपाल में था।
मध्य भारत विधान सभा (ग्वालियर): मध्यभारत इकाई की स्थापना ग्वालियर, इन्दौर और मालवा रियासतों को मिलाकर मई, 1948 में की गई थी। ग्वालियर राज्य के सबसे बड़े होने के कारण वहां के तत्कालीन शासक जीवाजी राव सिंधिया को मध्यभारत का आजीवन राज प्रमुख और ग्वालियर के मुख्यमंत्री लीलाधर जोशी को प्रथम मुख्यमंत्री बनाया गया। इस मंत्रीमंडल ने 4 जून, 1948 को शपथ ली।
इसके बाद 75 सदस्यीय विधान सभा का गठन किया गया, जिनमें 40 प्रतिनिधि ग्वालियर राज्य के, 20 इन्दौर के और शेष 15 अन्य छोटी रियासतों से चुने गए। यह विधान सभा 31 अक्टूबर, 1956 तक कायम रही। सन् 1952 में संपन्न आम चुनावों में मध्य भारत विधानसभा के लिए 99 स्थान रखे गए, मध्य भारत को 59 एक सदस्यीय क्षेत्र और 20 द्वि सदस्यीय क्षेत्र में बांटा गया। कुल 99 स्थानों में से 17 अनुसूचित जाति और 12 स्थान अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित रखे गए।
मध्यभारत की नई विधान सभा का पहला अधिवेशन 17 मार्च, 1952 को ग्वालियर में हुआ। इस विधानसभा का कार्यकाल लगभग साढ़े चार साल रहा।
मध्य भारत प्रांत का विधानसभा भवन ग्वालियर में था।
सेन्ट्रल प्राविन्सेस एंड बरार विधान सभा: पूर्व में वर्तमान महाकौशल, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के बरार क्षेत्र को मिलाकर सेन्ट्रल प्राविन्सेस एंड बरार नामक राज्य अस्तित्व में था। राज्य पूनर्गठन के बाद महाकौशल और छत्तीसगढ़ का क्षेत्र यानी पूर्व मध्यप्रदेश (जिसे सेन्ट्रल प्राविन्सेस कहा जाता था। वर्तमान मध्यप्रदेश का भाग बना। इसके अनुसार उस क्षेत्र के विधान सभा क्षेत्रों को भी वर्तमान मध्यप्रदेश के विधान सभा क्षेत्रों में शामिल किया गया।
सेन्ट्रल प्राविन्सेस एंड बरार का विधानसभा भवन नागपुर में था।
(नोट: 1 नवंबर 2000 को मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ पृथक राज्य बना।)
संदर्भ:
मध्य प्रदेश विधानसभा के दस्तावेज दीपक तिवारी की पुस्तक ‘राजनीतिनामा’ शाहनवाज खान की पुस्तक ‘भोपाल रियासत का इतिहास’
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