साल 1820 में रेसीडेंसी कोठी की नींव रखी गई थी।
मैं रेसीडेंसी हूं। रेसीडेंसी कोठी। 1820 में मेरी नींव रखी गई और 1836 में मैं बनकर तैयार हुई। मैं 1857 की क्रांति की गवाह रहीं और तोप के गोले भी झेले। अंग्रेजों ने मुझे इस तरह बनाया कि वे जब यहां खड़े हों, तो भारतीय उन्हें गर्दन ऊंची करके देखें। आज मैं
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मुझे याद है, देश के कई बड़े लोग, विद्वान, नेता और विदेशी मेरे यहां आकर रुके। लेकिन छत्रपति शिवाजी महाराज कभी मेरे पास से गुजरे, यह मुझे याद नहीं। हां, इंदौर के शासक होलकरों ने मेरा बहुत ध्यान रखा। आज मैं आपको अपने बनने से लेकर अब तक के कुछ किस्से बताऊंगी और यह भी बताऊंगी कि मेरा नाम रेसीडेंसी कैसे पड़ा।
1817 से शुरू हुई रेसीडेंसी कोठी बनाने की कहानी
1817 में जब इंदौर में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कदम रखा, तब रेसीडेंसी कोठी बनाने की नींव रखी गई। उस समय उज्जैन के पास महिदपुर में अंग्रेजों और होलकरों के बीच युद्ध हुआ। अंग्रेजों ने षडयंत्र से होलकर सेना को पराजित कर दिया। इसके बाद उन्होंने होलकर सहित आसपास की सभी रियासतों से समझौता किया। ट्रीटी ऑफ मंदसौर में एक संधि हुई और 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी इंदौर आ गई। अंग्रेजों ने यहां अपनी ताकत बढ़ाना शुरू की। दो साल बाद 1820 में रेसीडेंसी का निर्माण शुरू हुआ।
इंदौर की यह 204 साल पुरानी कोठी अपने बदले हुए नाम को लेकर चर्चा में हैं।
दो हिस्सों में बंटा था इंदौर
इसके निर्माण के लिए सामग्री होलकरों ने उपलब्ध कराई। रेसीडेंसी बनने के साथ ही इस इलाके का विकास होने लगा। 1836 में रेसीडेंसी बनकर तैयार हो गई, लेकिन होलकर राजवंश ने अपने आपको इस इलाके से अलग रखा। यानी इंदौर दो हिस्सों में बंट गया। एक में अंग्रेजी शासन चलता था और दूसरे में होलकर का। टैक्स वसूली, कानून, और नियम सभी अलग थे। यहां तक कि वेट और मेजरमेंट भी अलग-अलग चलता था।
अंग्रेजी अफसर का रुकना बना नाम की वजह
अंग्रेजों ने महू में छावनी बनाई। वहां रेसीडेंसी बाजार बनाया तो होलकर ने व्यापार के लिए सेवागंज बाजार बनाया। तब वहां सस्ती दरों पर चीजें मिलती थीं। मेरे बनने के बाद इसमें सबसे पहले एक अंग्रेज रुके। उनका नाम था वेलिंग्सली। वे एक रैजिडैंट अफसर थे। उनके जाने के बाद यहां रैजिडैंट कैटेगेरी के अफसर ही रहते थे, इसलिए मेरा नाम रेसीडेंसी पड़ गया। आपको यह भी बताती चलूं कि वेलिंग्सली के नाम पर ही बाद में एक ब्रिज बना, जो इंदौर को महू से जोड़ता था।
ऐसे बनी डिजाइन
इतिहासकार डॉ. जफर अंसारी के मुताबिक एक अंग्रेज कॉफी पी रहे थे। तब उन्होंने एक टिश्यू पेपर पर कुछ लाइन ड्रॉ की और कहा कि रेसीडेंसी की डिजाइन ऐसी होना चाहिए। जिसमें अंग्रेज जब खड़े हों तो वे ऊंचाई पर हों। हमारे खड़े होने का प्रभाव होना चाहिए। जिस समय रेसीडेंसी का निर्माण हुआ, तब यहां से कान्ह नदी गुजरा करती थी। वहां बोट क्लब भी हुआ करता था। पूरा इलाका नवलखा से घिरा था, खूब पेड़ हुआ करते थे। अंग्रेजों ने भी बहुत से पेड़ इंग्लैंड से लाकर लगाए थे।
रेसीडेंसी कोठी की पुरानी तस्वीर।
रेजिडेंट करते थे मॉनिटरिंग
गेराल्ड वेलस्ली इंदौर के पहले रेजीडेंट थे। वे जून 1818 से लेकर नवंबर 1831 तक रेज़ीडेंट रहे। रेसीडेंसी कोठी में ही उनका ऑफिस था। रेसीडेंसी कोठी बड़े बंगले के रूप में ख्यात थी, जिसे रेसीडेंसी हाउस या रेसीडेंसी कोठी के रूप में भी जाना जाता है।
यह एक बड़े बंगले के रूप में सेमी-सर्कुलर आकार में बनी हुई है। रेज़ीडेंट होलकर महाराजाओं के डिप्लोमैट और एडवाइजर की भूमिका अदा करते थे और होलकर स्टेट की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों की मॉनिटरिंग भी किया करते थे।
रेसीडेंसी रिवर और बोटिंग क्लब
यहां रहे अंग्रेज बोटिंग के शौकीन थे। रेसीडेंसी के पास से ही कान्ह नदी बहती थी, जो इसकी सुंदरता में चार चांद लगाती थी। कान्ह नदी को रेसीडेंसी रिवर भी कहा जाता था। इसी पर वालेस्ली ब्रिज बनाया गया था, जिसे आज नवलखा पुल कहते हैं। इस पुल को गेराल्ड वालेस्ली ने 1823 में बनाया था, और इसके लिए सरदार बोलिया ने दस हजार रुपए का दान दिया था। यहां बोटिंग क्लब बनाया गया था, जहां अंग्रेज बोटिंग किया करते थे।
जब रेसीडेंसी कोठी की जगह तय की गई तब वहां से कान्ह नदी गुजरा करती थी।
1857 की क्रांति में योगदान
बात 1 जुलाई 1857 की है। सदर बाजार में होलकर के सैनिक बड़ी संख्या में इकट्ठा हुए। पूरी योजना मौलवी अब्दुल समद ने बनाई और होलकर के तोपची सआदत खां, दुर्गा प्रसाद, पंच गोपाल, भागीरथ सिलावट सहित अन्य सैनिक इसकी अगुआई कर रहे थे।
सुबह के 9 बजे थे। यहां से वे एक साथ रेसीडेंसी पहुंचे। तोप के गोले दागे गए। इससे मेन गेट पूरी तरह ध्वस्त हो गया। अंग्रेजों को इस बात की भनक लग चुकी थी, इसलिए उन्होंने पहले ही भोपाल स्टेट के भोपावर स्टेट और मालवा की भील पलटन को मुकाबला करने के लिए बुला लिया। लेकिन वे भी होलकर सैनिकों के साथ मिल गए।
सभी ने मिलकर रेसीडेंसी कोठी से 9 लाख रुपए की सोने-चांदी की करेंसी लूट ली। यहां अंग्रेजों का झंडा उतारा और होलकर शासन का लहरा दिया। यह पूरा माजरा देखकर वहां की जिम्मेदारी संभाल रहे कैप्टन डूरंड परिवार सहित भाग खड़े हुए।
यहां से सैनिक देवास के रास्ते मेरठ गए। देवास के महाराज ने सोने-चांदी के सिक्कों को गलाकर सोने में बदल दिया, ताकि वे कहीं पकड़े न जाएं। इंदौर के क्रांतिकारी सैनिक मेरठ में पहले से चल रही क्रांति का हिस्सा बने और वे आगरा होते हुए दिल्ली तक पहुंचे।
होलकर शासन में सेना का एक तोपची।
अटलजी से लेकर आडवाणी तक काे रेसीडेंसी कोठी पसंद
1970 से 2003 तक यहां प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, कई मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री आते रहे हैं। अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जाेशी जैसे दिग्गज नेता हों या राष्ट्रपति रहते डॉ. शंकरदयाल शर्मा, 100 से ज्यादा हस्तियां यहां रुक चुकी हैं।
अब अपने बदले हुए नाम को लेकर विवादों में रेसीडेंसी कोठी
दरअसल, 18 अक्टूबर को महापौर परिषद ने फैसला लिया है कि रेसीडेंसी कोठी का नाम बदलकर शिवाजी कोठी रखा जाएगा। उसके बाद संस्था ‘पुण्य श्लोका’ ने मांग उठाई कि इसका नाम देवी अहिल्या बाई के नाम पर रखा जाए। संगठन के सदस्यों ने 21 अक्टूबर को रेसीडेंसी कोठी के मुख्य द्वार के बाहर देवी अहिल्या बाई कोठी का बैनर भी लगाया था। परिषद के इस फैसले के बाद कांग्रेस ने भी इसका विरोध कर राजनीति से प्रेरित फैसला बताया था।
इस बीच 1857 के विद्रोह के शहीद सआदत खान के वंशजों ने मांग की कि ऐतिहासिक बिल्डिंग का नाम उनके नाम पर रखा जाए। सआदत खान के वंशज रिजवान खान ने कहा कि –
हम छत्रपति शिवाजी महाराज और देवी अहिल्या बाई का पूरा सम्मान करते हैं, लेकिन जब भी रेसीडेंसी कोठी के बारे में कोई बात करता है तो सआदत खान की शहादत का भी जिक्र होता है। इसलिए हम चाहते हैं कि इमारत का नाम सआदत खान के नाम पर रखा जाए। हमारा परिवार और अन्य क्रांतिकारियों के वंशज वर्षों से नाम बदलने की मांग कर रहे हैं।
बता दें, स्थानीय क्रांतिकारियों का नेतृत्व करते हुए सआदत खान ने रेसीडेंसी कोठी पर हमला किया था। बाद में अंग्रेजों ने उन्हें ऐतिहासिक इमारत में फांसी पर चढ़ा दिया था। वहां उनका स्मारक भी बना है।
कांग्रेस ने भी जताई थी आपत्ति
रेसीडेंसी कोठी का नाम बदलने को लेकर कांग्रेस ने भी आपत्ति जाहिर की थी। मप्र कांग्रेस के महासचिव राकेश सिंह यादव का कहना था की महाराष्ट्र में होने वाले चुनाव को देखते हुए यह किया गया है। वहां के वोट बैंक के लिए रेसीडेंसी का नाम बदलकर शिवाजी कोठी रखा गया है। यह देवी अहिल्या की उपेक्षा है।
बैठक में बोले थे महापौर- यह नाम अंग्रेजों की पहचान
रेसीडेंसी कोठी का नाम बदले जाने को लेकर महापौर पुष्यमित्र भार्गव ने कहा था कि यह नाम अंग्रेजों की पहचान बताता है। इसलिए इसके नाम में बदलाव किया गया। बता दें, अंग्रेज शासन काल में यह कोठी अंग्रेजों की सत्ता का केंद्र थी। इस कोठी का निर्माण 204 वर्ष पहले किया गया था।
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रेसीडेंसी कोठी अब शिवाजी वाटिका के नाम से:मल्टी लेवल पार्किंग की रूफटॉप पर बनेंगे प्ले जोन; MIC बैठक में कई प्रस्ताव मंजूर
शहर की रेसीडेंसी कोठी का नया नाम शिवाजी वाटिका होगा। मल्टी लेवल रूफटॉप पर प्ले जोन बनाए जाएंगे। शहर में बचे स्थानों पर जीआईएस सर्वे कराया जाएगा।
दो सप्ताह पहले हुई मेयर इन कौंसिल (MIC) की बैठक में रेसीडेंसी कोठी का नाम बदलने का फैसला लिया गया था।
ब्रिज और फ्लाई ओवर ब्रिज के नीचे हॉकर्स जोन और स्पोर्ट्स एक्टिविटीज होंगी। संजीवनी क्लीनिक को एनजीओ के माध्यम से संचालन किया जाएगा। शुक्रवार को निगम के मेयर इन कौंसिल (MIC) की बैठक हुई। इसमें इनके सहित 50 से ज्यादा प्रस्तावों को मंजूरी दी गई।पढ़ें पूरी खबर…
रेसीडेंसी कोठी को शिवाजी के नाम करने पर खुशी: इंदौर के महापौर भार्गव को मराठी टोपी पहनाकर और छत्रपति शिवाजी का चित्र भेंटकर किया सम्मान
क्षत्रिय मराठा नव निर्माण सेना ने रेसीडेंसी कोठी को छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम पर करने पर सोमवार को महापौर पुष्यमित्र भार्गव का सम्मान किया।
क्षत्रिय मराठा नव निर्माण सेना ने रेसीडेंसी कोठी को छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम पर करने पर महापौर पुष्यमित्र भार्गव का सम्मान किया था।
सेना के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रकांत कुंजीर चंदू भैया ने छत्रपति शिवाजी महाराज का चित्र भेंट किया। क्षत्रिय मराठा नव निर्माण सेना के सदस्यों ने सम्मान स्वरूप महापौर भार्गव को मराठी टोपी भी पहनाई। पढ़ें पूरी खबर…
रेसीडेंसी का नाम शिवाजी कोठी करने का विरोध
विरोध-प्रदर्शन के दौरान रेसीडेंसी कोठी पर देवी अहिल्या कोठी नाम का बैनर भी लगा दिया है।
संस्था पुण्यश्लोका के कार्यकर्ताओं का कहना है कि रेसीडेंसी कोठी का नाम शिवाजी कोठी रखने के पीछे का फैसला राजनीति से प्रेरित है। महापौर परिषद द्वारा लिया गया यह एक तरफा फैसला है, जिससे संस्था के साथ धनगर समाज के लोगों में आक्रोश है। महापौर परिषद में फैसला लेने से पहले एक बार शहर की जनता से भी विचार-विमर्श किया जाना था। कांग्रेस ने भी जताई थी आपत्ति
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