दतिया में विराजमान रतनगढ़ माता मंदिर पर भाई दूज पर लगने वाला मेला शुरू हो गया है। यहां मध्यप्रदेश के अलावा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली सहित अन्य प्रांतों से श्रद्धालु पहुंच रहे हैं। मान्यता है कि, माता के मंदिर पर सर्पदंश पीड़ितों का जहर उतर जाता
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माता मंदिर पर भाई दूज पर लगने वाला यह मेला दो दिन चलेगा। दो दिन में करीब 25 लाख से अधिक लोगों के पहुंचने का अनुमान है। श्रद्धालु मंदिर पर अपनी मन्नत को पूरी कराने के लिए पिंड भरकर (लेट-लेटकर पहुंच रहे है) माता का मंदिर जंगल में स्थित विंध्याचल पर्वत पर माता विराज मान है। यहां माता रतनगढ़ और दूसरा मंदिर कुंवर महाराज का है।
दतिया में रतनगढ़ माता मंदिर, जहां भाईदूज पर मेला लगता है।
मेले में इस बार यह रही व्यवस्थाएं
मेले में सर्पदंश से पीड़ित लोगों के लिए 3 हजार स्ट्रेचर की व्यवस्था रहेगी रतनगढ़ पर पूर्व में हादसे हो चुके हैं।इसलिए किसी तरह की आशंका को देखते हुए एक हेलीपेड, तीन क्रेन मशीनें, जेसीबी, 20 फायर ब्रिगेड मशीनें उपलब्ध है। पार्किंग स्थल से लेकर कुंवर बाबा मंदिर के पीछे तक हाई डेफिनेशन के 42 सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं।इनकी मॉनीटरिंग के लिए कंट्रोल रूम बनाया गया है। यहां 24 घंटे कर्मचारी नजर रख रहे है। मेला में अगरबत्ती, नारियल अथवा धूपबत्ती ले जाने पर धारा 163 के तहत रोक लगी है। भक्त सूखा प्रसाद ही ले कर जा रहे है। संपूर्ण मेला परिसर में 25 अस्थायी शौचालय बनाए गए हैं। पहली बार थानों पर भी शौचालय, मेडिकल, पानी की सुविधा देखने को मिली है। सिंध नदी पर महाजाल की व्यवस्था देखने को मिली।इसके अलावा 1200 ट्यूब, छह मोटरबोट, रस्सा व अन्य सामान भी उपलब्ध है। श्रद्धालुओं के लिए हैंडपंप के अतिरिक्त 150 पानी के टैंकरों की भी व्यवस्था की गई है।
यह है मान्यता
मान्यताओं के अनुसार कुंवर बाबा यानी कुंवर गंगा रामदेव रतनगढ़ वाली माता के भाई हैं। कुंवर बाबा अपनी बहन से बेहद स्नेह करते थे। वे जब जंगल में शिकार करने जाते थे, तब सारे जहरीले जानवर अपना विष बाहर निकाल देते थे, इसलिए जब किसी इंसान को विषैला जीव सर्प आदि काट लेता है, तो उसके घाव पर माता रतनगढ़ के नाम का बंधन लगाते हैं। यानी माता का नाम लेकर तुलसी के गमले की मिट्टी या घर के मंदिर की ही भभूत से सर्प दंश वाले स्थान के ऊपर घेरा बना देते हैं।
मेले को लेकर सुरक्षा व्यवस्था कड़ी है। चप्पे-चप्पे पर पुलिस बल तैनात है।
ठीक हो जाते हैं सर्प दंश पीड़ित
दीपावली की दूज पर लोग सर्प दंश से पीड़ित व्यक्ति के बंध खुलवाने के लिए लाए हैं। सिंध नदी में स्नान के बाद मंदिर की सीमा पर आते ही सर्प दंश पीड़ित अचेत हो जाते हैं। उन्हें स्ट्रेचर से मंदिर लाया जा है। इस बार यहां तीन हजार से अधिक स्ट्रेचर की व्यवस्था की गई है।कुंवर बाबा मंदिर में जल के छींटे पड़ने के बाद मंदिर की परिक्रमा लगाने के बाद वह ठीक हो जाता है।
मेला क्षेत्र में लगी 600 से ज्यादा दुकानें
माता के दर्शन करने आए श्रद्धालुओं के लिए नाश्ते, भोजन, प्रसाद, पूजन सामग्री, खिलौने आदि की दुकानें लगी हैं। पहाड़ी से नीचे मंदिर क्षेत्र के प्रांगण में 100 से ज्यादा दुकानें हैं। 300 से अधिक दुकानें मेन रोड पर संचालित की जा रही हैं। कुंवर महाराज के मंदिर के पास से ग्वालियर वाले रास्ते पर भी 100 से ज्यादा दुकानें सजी हैं।
सर्पदंश पीड़ितों के लिए अलग मार्ग
इस बार प्रशाशन ने सर्पदंश पीड़ितों के लिए अलग से मार्ग बनाया गया है। इस मार्ग से सिर्फ सर्पदंश पीड़ितों को ही स्ट्रेचर पर लेटाकर नदी से रतनगढ़ माता मंदिर और वहां से कुंवर बाबा मंदिर तक ले जाया जा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि नदी में स्नान करने के बाद सर्पदंश पीड़ित को मैहर आ जाते हैं और वह बेहोश हो जाता है। बेहोशी की हालत में ही उसे नदी से रतनगढ़ माता मंदिर तक कंधों या फिर स्ट्रेचर पर ले जाया जाता है। जब कुंवर बाबा मंदिर पर पहुंचता और नीम के पत्ते से झारा लगाया जाता है तब वह होश में आता है।
पिछले तीन साल में यह देखने को मिल रहा था कि, सर्पदंश से पीड़ित सिंध नदी से नहीं निकल रहे थे तो उन्हें मेहर (काटने के बाद वाली स्थिति) नहीं आ रही थी। ऐसे में अधिकांश पीड़ित पहले सिंध नदी पर जा रहे थे। स्नान के बाद उन्हें मेहर आना शुरू हो रहे थे। ऐसे में पीड़ित व इनके साथियों को अतिरिक्त आवागमन करना पड़ रहा था। पुल शुरू हो जाने से इस अतिरिक्त आवागमन से भी छुटकारा मिल गया है।
जगह जगह चल रहे भंडारे
रतनगढ़ माता मंदिर पर लख्खी मेले के लिए दतिया शहर से ही भंडारे लगना शुरू होगए। दतिया शहर से इंदरगढ़ और रास्ते में पड़ने वाले गांवो में जगह जगह भंडारे, भजन कीर्तन एक नवंबर को रात से शुरू हो गए है। दतिया शहर से रतनगढ़ माता मंदिर तक 100 से ज्यादा जगहों पर भंडारे चल रहे है। भंडारे करने वाले लोग श्रद्धालुओं को रोककर प्रसाद बांट रहे हैं।
पुलिस को चैलेंज कर डाकू करते थे दर्शन
बीहड़, बागी और डाकुओं के लिए कुख्यात रही तीन प्रदेशों में फैली चंबल घाटी के डकैत भी यहां आते रहे हैं। डाकू (बागी) पुलिस को चैलेंज देकर इस मंदिर में दर्शन करने आते थे। इस दौरान एक भी डकैत नहीं पकड़ा गया। चंबल के बीहड़ भी ऐसे डाकू स्वीकार नहीं करते थे, जिसने इस मंदिर में घंटा ना चढ़ाया हो। इलाके का ऐसा कोई बागी नहीं, जिसने यहां आकर माथा ना टेका हो।माधव सिंह, मोहर सिंह, मलखान, मानसिंह, जगन गुर्जर से लेकर फूलन देवी ने माता के चरणों में माथा टेक कर, घंटा चढ़ा कर आशीर्वाद लिया है।
देश का सबसे वजनी घंटा
रतनगढ़ के माता मंदिर में एक मोटी जंजीर से घंटे को बजाया जाता है। यह घंटा कोई आम नहीं है, बल्कि देश का सबसे बड़ा घंटा है। 1935 किलो बजनी इस घंटे को श्रृद्धालुओं के चढ़ाए गए घंटों की पीतल को गलाकर बनाया गया है। 16 अक्टूबर 2015 को इस विशालकाय घंटे का लोकापर्ण मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान किया था।
रतनगढ़ वाली माता का इतिहास
बात लगभग 400 साल पुरानी है जब मुस्लिम तानाशाह अलाउद्दीन खिलजी का जुल्म ढहाने का सिलसिला जोरों पर था। तभी खिलजी ने अपनी बद नियत के चलते सेंवढा से रतनगढ़ में आने वाला पानी बंद कर दिया था। रतन सिंह की बेटी मांडूला व उनके भाई कुंवर गंगा रामदेव जी ने अलाउद्दीन खिलजी के फैसले का कड़ा विरोध किया। इसी विरोध के चलते अलाउद्दीन खिलजी ने वर्तमान मंदिर रतनगढ़ वाली माता के परिसर में बने किले पर आक्रमण कर दिया। जो कि राजा रतन सिंह की बेटी मांडुला को नागवार गुजरा। राजा रतन सिंह की बेटी मांडुला बहुत सुंदर थी। उन पर मुस्लिम आक्रांताओं की बुरी नजर थी। इसी बुरी नजर के साथ खिलजी की सेना ने महल पर आक्रमण किया था। मुस्लिम आक्रमणकारियों की बुरी नजर से बचने के लिए बहन मांडुला तथा उनके भाई कुंवर गंगा रामदेव जी ने जंगल में समाधि ले ली। तभी से यह मंदिर अस्तित्व में आया। इस मंदिर की चमत्कारिक कथाएं भी बहुत हैं।
छत्रपति शिवाजी ने कराया था निर्माण
यह मंदिर छत्रपति शिवाजी महाराज की मुगलों के ऊपर विजय की निशानी है। यह युद्ध 17वीं सदी में छत्रपति शिवाजी और मुगलों के बीच हुआ था। तब माता रतनगढ़ वाली और कुंवर महाराज ने मदद की थी। कहा जाता है कि रतनगढ़ वाली माता और कुंवर बाबा ने शिवाजी महाराज के गुरु रामदास जी को देवगढ़ के किले में दर्शन दिए थे। शिवाजी महाराज मुगलों से विजय प्राप्त की थी।मुगलो को परास्त करने के बाद शिवाजी ने इस मंदिर का निर्माण कराया था।
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