आलम यह है कि देश में इन मूक प्राणियों, विशेष रूप से कुत्तों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। भूख और बीमारी से तड़पते और हर दिन दुर्व्यवहार का शिकार होते इन मासूम बेज़ुबानों की हालत यह दर्शाती है कि हमें अपनी सेवा और दयाभाव को सिर्फ अपने परिवार या यार-दोस्तों तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए।
By Navodit Saktawat
Publish Date: Fri, 08 Nov 2024 05:30:39 PM (IST)
Updated Date: Fri, 08 Nov 2024 05:53:51 PM (IST)
उदारता और करुणा के कार्यों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से हर वर्ष 13 नवंबर को वर्ल्ड काइंडनेस डे मनाया जाता है। दया इंसान के स्वभाव का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसी के चलते वह दूसरों की तकलीफ और परेशानियों को समझता है और अपनी ओर से उन्हें कम करने के प्रयत्न करता है। हमें बचपन से ही दूसरों और विशेष रूप से जरूरतमंदों के प्रति दया भाव रखने की नायाब सीख दी जाती है। फिर हमारा सनातन धर्म भी कहता है: “प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो” और अंततः ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ यानि यह पूरी दुनिया एक परिवार है। लेकिन, बड़ी विडम्बना है कि हम इन शब्दों के महत्व और इनसे मिलने वाली सीख को अक्सर अनदेखा कर देते हैं। मूक प्राणियों के प्रति दयालुता दिखाना अब जैसे विलुप्ति की कगार पर जा पहुँचा है। गाय और कुत्ते के लिए घरों में रोटी निकालने की प्रथा भी अब कहाँ बची है?
आँकड़ों की मानें, तो भारत में लगभग 6 से 7 करोड़ आवारा कुत्ते हैं, इसके बावजूद पालने के मामले में लोग अच्छी से अच्छी ब्रीड के कुत्तों को अपने साथ रखना पसंद करते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि यह प्रवृत्ति काफी नकारात्मक है? हालाँकि, हर व्यक्ति को अधिकार है कि वह अपनी पसंद को प्राथमिकता दे, फिर भी मुझे यह प्रवृत्ति अज्ञानता से अधिक कुछ भी नहीं दिखती। इन कुत्तों को पूरी तरह नजरअंदाज़ कर दिया जाता है, शायद इन्हें पालने योग्य समझा ही नहीं जाता। उनके साथ होती बदसलूकी और क्रूरता पर यदि हम थोड़ा भी विचार कर लें, तो मुझे लगता है कि एक बहुत ही अच्छा बदलाव इस विषय में लाया जा सकता है।
पशु अधिकार कार्यकर्ता निहारिका कश्यप कहती हैं कि अपने फायदे के लिए न जाने कितने ही अनैतिक ब्रीडर्स मादा कुत्तों को वर्ष में दो से अधिक बार तक गर्भ धारण करने पर मजबूर करते हैं, जो एक तरह से शोषण है। इसके अलावा, नवजात पिल्लों को उनकी माँ से बहुत कम उम्र में ही अलग कर बेच दिया जाता है।
आवारा कुत्तों की वास्तविकता बहुत ही गंभीर और इंसानियत का सबसे शर्मनाक चेहरा पेश करती है। यदि आप गूगल खँगालेंगे, तो आपको ‘डॉग रेप केस’ जैसी क्रूरता के कई मामले भरपल्ले मिल जाएँगे। बहुत ही शर्म की बात है कि यह उन घटनाओं का महज़ छोटा-सा हिस्सा है, जो वास्तव में हमारे देश में घटती हैं। हमारे समाज के ये कुत्ते खुद को बचाकर रखने के लिए पूरी जिंदगी संघर्ष करते हैं। चिल-पुकार और गाड़ियों से खचाखच भरा हुआ ट्रैफिक हो, खराब मौसम हो, जहरीले अपशिष्ट हो, पेट भरने के लिए दो रोटी की आस हो, या फिर सिर पर हाथ फेरकर थोड़ा दुलार कराने की मंशा हो, सब कुछ इन बेज़ुबानों के साथ होने वाली बर्बरता के आगे फीके हैं।
शर्म की सारी हदें तो तब पार हो जाती हैं, जब भारत की कई हाउसिंग सोसायटीज़ में इन कुत्तों को एक परेशानी के रूप में देखा जाता है, न कि जीवित प्राणियों के रूप में, जो हर दिन हम इंसानों से शारीरिक और मानसिक यातना झेलते हैं। इस नकारात्मकता का सामना उन बचावकर्ताओं को भी करना पड़ता है, जो इन आवारा कुत्तों को खाना खिलाने, बचाने और पुनर्वास करने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं। लोग उन्हें धमकियाँ देने और उनके साथ हिंसा करने से भी नहीं कतराते। कुल मिलाकर, आवारा कुत्तों के प्रति यह तिरस्कार की भावना हमें चीख-चीख कर बता रही है कि जरूरतमंदों के लिए हमारे भीतर दया, करुणा और देखभाल की भावना दम तोड़ चुकी है। यह एक ऐसा कड़वा सच है, जिसे हम स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं। वास्तव में दयनीय कुत्तों की हालत नहीं, बल्कि इंसानियत हो चुकी है।
आवारा कुत्तों को बचाने का अर्थ सिर्फ उनके साथ होती क्रूरता को कम या खत्म करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह दयालुता और जिम्मेदारी की एक ऐसी संस्कृति बनाने पर भी जोर देता है, जो समाज पर सकारात्मक प्रभाव डाल सके। हमें समझना होगा कि जानवरों के प्रति सहानुभूति रखने से हमारे ही सामाजिक व्यवहार में सुधार होगा। एक बात यह भी है कि किसी एक व्यक्ति के करुणा या सहानुभूति दिखाने से कुछ नहीं होगा, इसके लिए पूरे समाज को आगे आना होगा। बिल्कुल इसी तरह, जैसा कि कहते हैं न “बंद मुट्ठी लाख की और खुल गई तो खाक की”। तब जाकर ही हम समाज के सबसे कमजोर सदस्यों, यानि हमारे समुदाय के कुत्तों की वास्तव में रक्षा कर सकेंगे।
हमारे पास मौका है कि हम अपने समाज में इस भावना को बढ़ाएँ और इन मासूमों के लिए कुछ करें। इस वर्ल्ड काइंडनेस डे, चलिए हम यह संकल्प लें कि हम न सिर्फ दयालु बनेंगे, बल्कि उन तमाम जरूरतमंदों के लिए परिवर्तन के वाहक भी बनेंगे, जो खुद के लिए न्याय की आवाज़ नहीं उठा सकते। हमें अपनी दुनिया को ऐसा बनाना है, जहाँ ये मासूम प्राणी डर या दहशत में न जीएँ।
जानवरों से प्यार करने पर हमें अपने भीतर की गहराई का पता चलता है। जैसा कि कहा जाता है, जब तक आपने किसी ने जानवर से प्रेम नहीं किया, तब तक आपकी आत्मा का एक हिस्सा सोया रहता है। उन्हें हमारे द्वारा किए गए बड़े-बड़े कामों की जरूरत नहीं, सिर्फ पेट भरने के लिए थोड़ा-सा खाना, रहने के लिए एक सुरक्षित स्थान और हमारे हाथों का प्यार भरा स्पर्श चाहिए, जो उन्हें यह महसूस कराए कि वे भी इस दुनिया का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। तो चलिए, हम सब मिलकर एक ऐसा समाज बनाएँ, जहाँ हर जीव को सम्मान, प्यार और सुरक्षा मिले।
– तेजस्विनी गुलाटी (मनोवैज्ञानिक)
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