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BRTS Dismantling in MP: आदत बदले बिना जल्दबाजी की योजनाओं का हश्र बीआरटीएस जैसा होता है

आनन फानन में रिपोर्ट बनी, ओके होने की औपचारिकता के साथ काम शुरू कर दिया गया। जब यह प्रोजेक्ट बन रहा था, उस समय ही सिस्टम भ्रमित रहा। न तो यह देखा कि हमें बीआरटीएस भले ही बगोटा की तर्ज पर बनाना है, लेकिन बनाना तो भारतीय शहर में है, जहां के लोगों के ट्रैफिक व्यवहार बगोटा वालों से कतई अलग है।

By Virendra Tiwari

Publish Date: Mon, 03 Mar 2025 12:44:17 PM (IST)

Updated Date: Mon, 03 Mar 2025 12:44:17 PM (IST)

दक्षिणी अमेरिकी शहर बगोटा का बीआरटीएस, जिसकी नकल मध्य प्रदेश में की गई। (फाइल फोटो)

HighLights

  1. भोपाल के बाद, इंदौर में भी तोड़ा जा रहा बीआरटीएस
  2. फैसले के बाद सरकार और अफसरों पर उठे सवाल
  3. बनाने में जनता के टैक्स के करोड़ों रुपए हुए थे खर्च

वीरेंद्र तिवारी। किसी भी कार्य में देश, काल, परिस्थिति का कितना अहम रोल होता है, यह इसका अंदाजा इंदौर के उखड़ते बीआरटीएस (बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम) को देखकर लगाया जा सकता है। यह वही बीआरटीएस है, जिसको बनाने में न सिर्फ इंदौरवासियों, बल्कि पूरे प्रदेश की जनता की पसीने की कमाई से लिए गए टैक्स के 300 करोड़ रुपए लगाए गए थे।

2009-10 में जब बीआरटीएस बन रहा था, उस वक्त मैं वहीं था और उसके निर्माण की प्रशासनिक प्रक्रिया से भी रूबरू हो रहा था। तत्कालीन कलेक्टर आईएएस विवेक अग्रवाल के प्रयास से इंदौर में सिटी बस पहले से ही चलाई जा रही थीं, तो बसों के लिए अलग लाइन बनाने की बात स्थापित की गई। असर और प्रभाव इतना हुआ कि इंदौर में बगोटा (कोलंबिया की राजधानी) जैसा बीआरटीएस बनाया जाएगा, यह तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के हर दौरे के वक्त मीडिया बाइट्स या जनसभा में होता था।

इंदौर को वह सपनों का शहर कहते थे, शायद इसीलिए चाहते थे कि उनके पूर्णकालिक मुख्यमंत्री के लिए होने वाले चुनाव से पहले इंदौर को कोई बड़ी सौगात दी जाए। तय हुआ कि मप्र के अफसरों का एक दल दक्षिणी अमेरिका के शहर बगोटा जाएगा। बगोटा में यह देखेगा कि उनके यहां 2000 में शुरू हुआ बीआरटीएस कैसा है।

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आनन फानन में रिपोर्ट बनी, ओके होने की औपचारिकता के साथ काम शुरू कर दिया गया। जब यह प्रोजेक्ट बन रहा था, उस समय ही सिस्टम भ्रमित रहा। न तो यह देखा कि हमें बीआरटीएस भले ही बगोटा की तर्ज पर बनाना है, लेकिन बनाना तो भारतीय शहर में है, जहां के लोगों के ट्रैफिक व्यवहार बगोटा वालों से कतई अलग है।

सड़कों की चौड़ाई, चौराहे, अनियोजित मार्केट, व्यवसायिक क्षेत्र और बीच सड़कों पर स्थित धार्मिक स्थल यहां बड़ी चुनौती है। बस लेन कितनी चौड़ी होनी चाहिए, यह बगोटा से नापकर आए थे, तो वह इंदौर में बना दी, लेकिन बची हुई सड़क क्या इंदौर के मौजूदा आम वाहनों का भार सहन कर पाएगी और 10 साल बाद जब वाहनों की संख्या बढ़ेगी उस वक्त क्या होगा, इसके बारे में तत्कालीन अफसरों ने मंथन करने की जरूरत नहीं समझी।

हो सकता है सोचा हो, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप और तत्कालीन चुनावी फायदे के लिए ‘एक बार बन जाए, फिर देखेंगे’ की सोच के साथ ठंडे बस्ते में डाल दिया हो। हमें यह याद रखना चाहिए कि इंदौर या किसी भी तेजी से विकसित होते शहर में जहां नवधनाढ्यों की संख्या रातों-रात बढ़ रही है, वहां एक-एक घर में गाड़ियों का काफिला है। वह कभी भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट उपयोग नहीं करेगा।

सिंगापुर में वाहनों पर राशनिंग है यानी सरकार तय करती है कि सड़क पर कितने वाहन दौड़ेंगे। वहां हर दशहरा, दिवाली, ग्वालियर मेला, उज्जैन मेला में अपने यहां जैसे वाहन खरीदी के न तो रिकॉर्ड बनते हैं, न होड़ है। वहां कार खरीदने की अनुमति मिलना किसी जंग जीतने से कम नहीं है, भले ही आप कितनी भी धनाढ्य हों।

यही कारण है कि सिंगापुर की सड़कों पर उतने ही वाहन होते हैं, जिससे न तो वहां के पब्लिक ट्रांसपोर्ट को दिक्कत हो, न पैदल या साइकिल से चलने वाले को। सिंगापुर का पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम दुनिया के सर्वश्रेष्ठ साधनों में से एक है। एक माल में आप शॉपिंग कर रहे होते हैं और लौटते वक्त लिफ्ट में एमआरटी का बटन दबाते हैं तो लिफ्ट सीधे अंडरग्राउंड मेट्रो स्टेशन पर खड़ी होती है। पूरे शहर को स्टेप्स फ्री करके रखा है।

यह सही है कि वाहन खरीदी पर रोक लगाना भारत जैसे विशाल और विकासशील देश के लिए संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा करने पर कार मैन्युफैक्चरिंग से मिलने वाला मोटा कर पर ब्रेक लग जाएगा। सरकार को कारों के निर्माण से कितना पैसा मिलता है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक फॉर्च्युनर से जितना कंपनी नहीं कमाती, उससे ज्यादा सरकार कमाती है।

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करीब 48 लाख रुपए कीमत की इस लक्जरी कार से सरकार को जीएसटी आरटीओ रजिस्ट्रेशन मिलाकर करीब 22 लाख रुपए की कमाई होती है। यानी कार की मूल कीमत 26 लाख रुपए ही होती है। धड़ाधड़ कारें बिकने से आटोमोबाइल कंपनियां और सरकार दोनों मालामाल हो रही हैं, लेकिन सड़कों और ट्रैफिक का जो कचूमर निकल रहा है, उसके बारे में कोई नहीं सोच रहा।

कार खरीदी रोकनी की जगह ग्वालियर और उज्जैन के मेले में आरटीओ टैक्स में 50 फीसदी की छूट देती है। ऐसे में जरूरत से अधिक खरीदी हो जाती है। आज-कल समाज में नया चलन है एक छोटी गाड़ी और एक एसयूवी रहेगी। आश्चर्य वाली बात है कि दोनों गाड़ियां घर के अंदर पार्किंग में नहीं या तो गली में खड़ी होंगी या मुख्य सड़क पर।

अधिकांश पाश कालोनियों में 25 फीट चौड़ी सड़क दोनों तरफ कारें खड़ी होने के कारण 10 फीट भी नहीं बचती। कहने का मतलब है कि हमारे समाज में पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम उपयोग करने का रिवाज ही नहीं है और न ही सरकार इसके लिए कोई बड़ा अभियान चलाती है। जब तक दोनों चीजें एक साथ चलेंगी दोनों में ही सफर मुश्किल होगा फिर चाहे वह आपकी कार हो या बीआरटीएस की बस।

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(लेखक ग्वालियर नईदुनिया के संपादकीय प्रभारी हैं।)

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